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गाथा ९४ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
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इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि निर्यापकाचार्यों द्वारा द्रव्यश्रुत में समागत प्रतिक्रमण में निरूपित प्रतिक्रमण के स्वरूप सूत्र को जानकर जिननीति का उल्लंघन न करनेवाले और संयम के धारण करने की भावना रखनेवाले मुनिराजों के प्रतिक्रमण होता है ।। ९४ ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव दो छन्द लिखते हैं; जिनमें पहला छन्द इसप्रकार है -
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( इन्द्रवज्रा ) निर्यापकाचार्यनिरुक्तियुक्तामुक्तिं सदाकर्ण्य च यस्य चित्तम् । समस्तचारित्रनिकेतनं स्यात्
तस्मै नमः संयमधारिणेऽस्मै ।। १२५ ।। ( दोहा )
निर्यापक आचार्य के सुनकर वचन सयुक्ति । जिनका चित्त चारित्र घर वन्दूँ उनको नित्य ॥१२५|| निर्यापकाचार्यों के निरुक्ति सहित कथन सुनकर जिनका चित्त चारित्र का निकेतन (घर) बनता है; ऐसे संयम धारियों को नमस्कार हो । इस छन्द का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं. “निर्यापकाचार्यों ने भी यह बात सुनाई थी कि प्रतिक्रमण का शुभ विकल्प निश्चय से विषकुम्भ है, और शुभाशुभरहित होकर स्वरूप में लीनता होना ही अमृतकुम्भमय प्रतिक्रमण है ।'
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चरणानुयोग में कथित प्रतिक्रमण का सार भी यही है कि चैतन्य में ठहरना । जितनी चैतन्य में लीनता है, उतना ही प्रतिक्रमण है । २
प्रथम चैतन्य का भान करके मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण होता है, तत्पश्चात् चैतन्य में लीनता होने पर मुनिदशारूप प्रतिक्रमण होता है।" दूसरा छन्द इसप्रकार है
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७५९ २. वही, पृष्ठ ७५९
३. वही, पृष्ठ ७६०