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गाथा ९० : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार को तो इस संसार समुद्र में डूबे जीव ने अनेक भवों में सुना है और धारण भी किया है; किन्तु अरे रे ! खेद है कि जो हमेशा एक ज्ञानरूप ही है, ऐसे परमात्मतत्त्व को कभी सुना ही नहीं है और न कभी तदनुसार आचरण ही किया है।
इस गाथा के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"सच्चे देव-गुरु की श्रद्धा, पाँच महाव्रत अथवा द्वादश व्रत के परिणाम आदि अनेक प्रकार के व्यवहाररत्नत्रय के परिणाम कथनमात्र मोक्ष के कारण हैं, उन परिणामों से मोक्षदशा प्रकट नहीं होती, उनको मात्र उपचार से मोक्ष का कारण कहा गया है। __ऐसे व्यवहाररत्नत्रय के परिणाम को भवसागर में डूबे हुए जीवों ने पहले अनेक भवों में सुना है और प्रयोग भी किया है । चैतन्यस्वभाव में डुबकी मारने के बदले पुण्य-पाप और देह की क्रिया में डुबकी मारी है। चैतन्यस्वभाव की रुचि छोड़कर पुण्य-पाप की रुचि करके लाभ माना और भवसागर में डूबा ।२
अहो! ज्ञान ही जिसका सर्वस्व है – ऐसे परमात्मतत्त्व की बात जीव ने सुनी नहीं, और उसका आचरण भी नहीं किया। यह परमात्मतत्त्व ही चैतन्यज्योतिस्वरूप है, ज्ञान ही उसका सर्वस्व है।"
इस कलश में मात्र इतना ही कहा गया है कि यद्यपि व्यवहाररत्नत्रय को मुक्ति का कारण व्यवहारनय से कहा गया है; तथापि वह कथनमात्र कारण है; क्योंकि शुभरागरूप और शुभक्रियारूप होने से वह पुण्यबंध का ही कारण है, मोक्ष का कारण नहीं । संसारसमुद्र में डूबे हुए जीवों ने उक्त व्यवहार धर्म की चर्चा तो अनेक बार सुनी है, उसका यथाशक्ति पालन भी किया है; किन्तु ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा की बात कभी नहीं सुनी और तदनुसार आचरण भी कभी नहीं हुआ। प्रत्येक आत्मार्थी भाई-बहिन को उक्त तथ्य की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए ।।१२१।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७२५ २. वही, पृष्ठ ७२६ ३. वही, पृष्ठ ७२७