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नियमसार गाथा ९१ अब इस गाथा में कहते हैं कि रत्नत्रयरूप से परिणमित ज्ञानी जीव स्वयं ही प्रतिक्रमण है। गाथा मूलत: इसप्रकार है -
मिच्छादसणणाणचरित्तं चइऊण णिरवसेसेण । सम्मत्तणाणचरणं जो भावइ सो पडिक्कमणं ।।९१।।
(हरिगीत ) ज्ञानदर्शनचरण मिथ्या पूर्णत: परित्याग कर।
रतनत्रय भावे सदा वह स्वयं ही है प्रतिक्रमण ||९१|| मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को पूर्णतः छोड़कर जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को भाता है, वह जीव स्वयं प्रतिक्रमण ही है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यहाँ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को सम्पूर्णतः स्वीकार करने एवं मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र का सम्पूर्णत: त्याग करने से परम मुमुक्षु को निश्चयप्रतिक्रमण होता है - ऐसा कहा है। ___ भगवान अरिहंत परमेश्वर के मार्ग से प्रतिकूल मार्गाभास में मार्ग
का श्रद्धान मिथ्यादर्शन है, उसी में कही गई अवस्तु में वस्तुबुद्धि मिथ्याज्ञान है और उस मार्ग का आचरण मिथ्याचारित्र है । इन तीनों को सम्पूर्णतः छोड़कर अथवा निजात्मा के श्रद्धान, ज्ञान एवं अनुष्ठान के रूप से विमुखता ही मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक मिथ्या रत्नत्रय है; इसे भी पूर्णतः छोड़कर; त्रिकाल निरावरण, नित्यानन्द लक्षणवाला, निरंजन, निज परमपारिणामिकभावस्वरूप कारण परमात्मारूप आत्मा के स्वरूप के श्रद्धान-ज्ञान-आचरण का रूप ही वस्तुतः निश्चयरत्नत्रय है । इसप्रकार भगवान परमात्मा के सुख का अभिलाषी जो परमपुरुषार्थपरायण पुरुष शुद्धरत्नत्रयात्मक आत्मा को भाता है; उस परमतपोधन को ही शास्त्रों में निश्चयप्रतिक्रमण कहा है।" इस गाथा के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “चैतन्यस्वभाव को स्वीकार करके अर्थात् उसके आश्रय से प्रगट