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नियमसार अनुशीलन इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“चैतन्य के भान बिना आहारादि छोड़कर देहत्याग कर देना, परमार्थ से प्रतिक्रमण नहीं है; किन्तु उत्तमार्थ अपने आत्मा के आश्रय में रहना ही सच्चा उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है।'
अपना कल्याण तो अपने आत्मा के आश्रय से ही है, इसलिये हे जीव! तेरे लिये तो तेरा आत्मा ही उत्तमोत्तम पदार्थ है । ऐसे उत्तम पदार्थ का श्रद्धान-ज्ञान करके उसमें स्थिर रहनेवाले मुनिगण कर्मनाश करते हैं; अतः उन मुनियों को अपने उत्तम आत्मपदार्थ का ध्यान ही उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है।
बियालीस आचार्यों के पास जाकर आज्ञा माँगते हैं। यह तो उस उत्तम चौथे काल की बात है, आजकल तो बियालीस आचार्य हैं ही कहाँ? बियालीस आचार्य न हो तो कम से कम दो आचार्यों से पूछकर सल्लेखना करे - ऐसी भी बात आती है । बियालीस आचार्यों से पूछने में वास्तव में अपने परिणामों की दृढ़ता सूचित होती है अर्थात् सल्लेखना करने का भाव तबतक बराबर टिका रहता है; 'निःशंकपने मैं समाधिधारण करूँगा' - ऐसा भाव दृढ़रूप से बना रहता है।'
जिसको देह के संयोग से भिन्नता का भान नहीं है, उसे देह के वियोगकाल में घबड़ाहट हुए बिना रहेगी नहीं। जिसे चैतन्य की नित्यता का भान है, देह के संयोगकाल में भी उसके वियोग का भान होने से देह से प्रीति नहीं है, वे ही नित्यमरणभीरु मुनि हैं।' ___मुनि कहते हैं कि हमने तो चैतन्य को अंगीकार किया है और इस देह के संयोग को तो छोड़ने बैठे ही हैं, अतः मरणकाल में देह का वियोग होना, हमारे लिये नवीन नहीं है - इसप्रकार जिन्हें जीवन के समय ही मरण का भान है, संयोग के काल में ही उससे वियोग होने का १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७४० २. वही, पृष्ठ ७४० ३. वही, पृष्ठ ७४०-७४१
४. वही, पृष्ठ ७४३-७४४