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गाथा ९२ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
मार्ग कहो - एक ही बात है। शुद्धचैतन्य वस्तु के ध्यान के अलावा अन्य कोई मोक्षमार्ग नहीं है। इस आत्मध्यान से अन्य जो कुछ भी है, वह सब घोर संसार का मूल है।
ध्येय और ध्यान के भेदरूप जो व्यवहारतप अर्थात् व्यवहार मुनिपना है, वह भी कल्पनामात्र रम्य है, व्यवहाररत्नत्रय का शुभराग भी कथनमात्र रम्य है। भेद के विकल्प का राग वास्तव में आत्मशान्ति का कारण नहीं है । चरणानुयोग में शुभरागरूप व्यवहारतप की बात आती है, वह कल्पनामात्र रम्य है। परमार्थ से तो शुभरागरूप व्यवहाररत्नत्रय भी संसार का ही कारण है । ध्यान-ध्येय के भेदविकल्परहित शुद्धचैतन्य में एकाग्रतारूप ध्यान ही मुक्ति का कारण है।”
उक्त छन्द में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि आत्मध्यान को छोड़कर धर्म के नाम पर चलनेवाला जो भी क्रियाकाण्ड है, जो भी शुभभाव हैं; वे सभी संसार के कारण हैं। ___ अधिक कहाँ तक कहे कि जब ध्यान-ध्येय संबंधी विकल्प भी रम्य नहीं है, करने योग्य नहीं है; तब अन्य विकल्पों की तो बात ही क्या करें? ___अन्त में बुद्धिमान व्यक्ति की वृत्ति और प्रवृत्ति की चर्चा करते हुए कहा गया है कि बुद्धिमान व्यक्ति तो अतीन्द्रिय आनन्दरूपी अमृत के सागर में डुबकी लगाते हैं, एकमात्र निज आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और ध्यान में ही लीन रहते हैं। यदि हमें अपना कल्याण करना है तो हमें भी स्वयं में समा जाना चाहिए।।१२३|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७५०
२. वही, पृष्ठ ७५०-७५१ कौन किसका विरोधी है ? कोई किसी का शाश्वत विरोधी और मित्र नहीं होता। जो आज विरोधी लगता है, कल वही मित्र हो जाता है। जो मित्र है, उसे विरोधी होते क्या देर लगती है ? यह सब तो राग-द्वेष का खेल है, मिथ्यात्व की महिमा है; वैसे तो सभी आत्मा भगवानस्वरूप हैं। यह क्यों कहते हो कि विरोधी कमजोर हो गए हैं, यह कहो न कि उनका विरोध कमजोर हो गया है, अतः अब वे हमारे मित्र बन रहे हैं। हमें विरोधियों को नहीं, विरोध को मिटाना है । जब विरोध मिट जावेगा तो विरोधी ही मित्र बन जावेंगे। - सत्य की खोज, पृष्ठ २३५