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नियमसार अनुशीलन
प्रमादवश होनेवाले अपराधों के प्रति पश्चात्ताप के भाव होने रूप जो प्रतिक्रमणादि हैं; वे पाप की अपेक्षा व्यवहार से अमृतकुंभ हैं, कथंचित् करने योग्य हैं ।
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शुभाशुभभाव से रहित शुद्धोपयोगरूप जो निश्चयप्रतिक्रमण या अप्रतिक्रमणादि हैं, वे साक्षात् अमृतकुंभ हैं, सर्वथा ग्रहण करने योग्य हैं; मुक्ति के साक्षात् कारण हैं ॥ ४५ ॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है -
( मंदाक्रांता ) आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं ध्यानध्येयप्रमुखसुतपः कल्पनामात्ररम्यम् । बुद्ध्वा धीमान् सहजपरमानन्दपीयूषपूरे निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे ।। १२३ ।। ( हरिगीत )
रे ध्यान - ध्येय विकल्प भी सब कल्पना में रम्य हैं। इक आतमा के ध्यान बिन सब भाव भव के मूल हैं ।। यह जानकर शुध सहज परमानन्द अमृत बाढ में । डुबकी लगाकर सन्तजन हों मगन परमानन्द में ||१२३|| आत्मध्यान के अतिरिक्त अन्य सभी भाव घोर संसार के मूल हैं, ध्येय-ध्यान के विकल्पों की प्रमुखता वाला शुभभाव और शुभक्रियारूप तप मात्र कल्पना में ही रमणीय लगता है ।
ऐसा जानकर बुद्धिमान पुरुष सहज परमानन्दरूपी अमृत की बाढ में डूबते हुए एकमात्र सहज परमात्मा का आश्रय करते हैं ।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा की श्रद्धा भी ध्यान है; उसका ज्ञान भी ध्यान है, और उसमें एकाग्रता भी ध्यान है । सम्यक् श्रद्धान-ज्ञानचारित्र - यह तीनों ही ध्यान में समा जाते हैं। ध्यान कहो या मोक्ष का