________________
गाथा ९२ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
५३ भान है – ऐसे मुनियों को यहाँ 'नित्यमरणभीरु' कहा है। उन्हें शरीर के संयोग-वियोग में ठीक-अठीकपना भासित नहीं होता।
मुनि 'नित्य मरणभीरु' हैं - इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि उन्हें सदा मरण का भय है, बल्कि उसका अर्थ ऐसा है कि उन्हें सदा देह से भिन्नता का भान है । चैतन्य के भान में उनका एक-एक क्षण कर्म और शरीर के अभावपने ही परिणमन कर रहा है। ___ व्यवहारधर्मध्यान भी राग है, अतः निश्चय से उसे भी विषकुम्भ कहा है।"
इस गाथा और उसकी टीका में मुख्यरूप से यही कहा गया है कि मरणकाल उपस्थित होने पर आचार्यों की अनुमतिपूर्वक जो सल्लेखना ली जाती है, जिसमें आहारादि के क्रमश: त्यागादिरूप शुभक्रिया और तत्संबंधी शुभभाव होते हैं, वह व्यवहारप्रतिक्रमण है और सभी प्रकार के विकल्पों से अतीत होकर निज भगवान आत्मा का ध्यान करना निश्चयप्रतिक्रमण है। इनमें से व्यवहारप्रतिक्रमण शुभभाव और शुभक्रियारूप होने से पुण्यबंध का कारण है और निश्चयप्रतिक्रमण शुद्धभावरूप होने से बंध के अभाव का कारण है।
बंध का कारण होने से व्यवहारप्रतिक्रमण विषकुंभ है और बंध के अभाव का कारण होने से निश्चयप्रतिक्रमण अमृतकुंभ है ।।१२।। __इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तथा चोक्तं समयसारे तथा समयसार में भी कहा है - लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार है -
पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य। जिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होदि विसकुंभो।।४४।।
(हरिगीत) प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा।
निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुंभ हैं।।४४|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७४४-७४५ २. वही, पृष्ठ ७४५ ३. वही, पृष्ठ ७४७
४. समयसार, गाथा ३०६