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नियमसार गाथा ९० अब इस गाथा में यह कहते हैं कि इस जीव ने मिथ्यात्वादि भावों को तो अनादि से भाया है; पर सम्यक्त्वादि भावों को आजतक नहीं भाया । गाथा मूलतः इसप्रकार है -
मिच्छत्तपहुदिभावा पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं । सम्मत्तपहुदिभावा अभाविया होंति जीवेण ।।१०।।
(हरिगीत ) मिथ्यात्व आदिक भाव तो भाये सुचिर इस जीव ने।
सम्यक्त्व आदिक भाव पर भाये नहीं इस जीव ने ||१०|| मिथ्यात्व आदि भाव तो इस जीव ने बहुत लम्बे काल से भाये हैं; परन्तु सम्यक्त्वादि भावों को कभी नहीं भाया।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यह आसन्नभव्य (निकटभव्य) और अनासन्नभव्य (जिसका मोक्ष दूर है – ऐसे भव्य) जीवों के पूर्वापर परिणामों के स्वरूप का कथन है।
मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योगरूप परिणाम सामान्य प्रत्यय (आस्रवभाव) हैं। उनके तेरह भेद हैं; क्योंकि मिच्छादिट्ठी आदि जाव सजोगिस्स चरमंते - ऐसा शास्त्र का वचन है और इसका अर्थ ऐसा है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय तक - कुल मिलाकर तेरह विशेष प्रत्यय हैं।
निरंजन निज परमात्मतत्त्व के श्रद्धान रहित दूरभव्य जीव ने सामान्य प्रत्ययों को सुचिरकाल तक भाया है; किन्तु परमनैष्कर्मचारित्र से रहित उक्त स्वरूपशून्य बहिरात्मा ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को नहीं भाया। इस मिथ्यादृष्टि जीव के विपरीत गुणसमुदायवाला अति आसन्नभव्य जीव होता है।" इस गाथा के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "ज्ञानस्वभाव की रुचि न करके पुण्य और निमित्त की रुचि करने