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गाथा ८९ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
सम्यग्ज्ञान का आभूषण यह परमात्मतत्त्व समस्त विकल्पसमूहों से सर्वतः मुक्त है । सर्वनयसमूह संबंधी यह प्रपंच परमात्मतत्त्व में नहीं है तो फिर यह ध्यानावली इसमें किसप्रकार उत्पन्न हुई ? कृपा कर यह बताइये।
उक्त छन्दों का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “हे जिनेन्द्र! नयों द्वारा कथित वस्तुस्वरूप इन्द्रजाल महान है। 'कथंचित् है' और 'कथंचित् नहीं है' - ऐसी आपकी कथनशैली अद्भुत है। नयों के विषय समझना कठिन है। ध्यान व्यवहार से तो है
और निश्चय से नहीं है। अहो ! यह बात आश्चर्यजनक है। आपके द्वारा कहा हुआ वस्तुस्वरूप समझना कठिन है।
ऐसा परमात्मतत्त्व सब विकल्पों से मुक्त है। राग के भेद, व्यवहार के भेद स्वभाव में नहीं है । यह निश्चयनय है और यह व्यवहारनय है - ऐसे नयों के भेद वस्तुस्वरूप में नहीं हैं। परमात्मतत्त्व एकरूप अभेद है तो फिर वह ध्यानावली इस परमात्मतत्त्व में कैसे हो सकती है, सो कहो? ध्यान की परम्परा तो नवीन पर्याय है और व्यवहारनय का विषय है। जब नयों के भेद ही वस्तु में नहीं हैं तो फिर व्यवहारनय की विषय ध्यानावली वस्तुस्वभाव में किसप्रकार हो सकती है? अर्थात् स्वभाव में वह ध्यानावली नहीं है।” __इन छन्दों में यह कहा गया है कि जब ध्यान के ध्येयरूप परमात्मतत्त्व में ध्यानावली - ध्यान की श्रेणी है ही नहीं - ऐसा शुद्धनय कहता है; तब यह ध्यानावली उक्त परमात्मतत्त्व में कैसे हो सकती है ?
यद्यपि यह सत्य है कि व्यवहारनय से ऐसा कहा जाता है कि ध्यानावली आत्मा में है; तथापि परमार्थ तो यही है कि ध्येयतत्त्व में ध्यानावली का होना संभव नहीं है ।।११९-१२०।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७२६ २. वही, पृष्ठ ७२९