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गाथा ८९ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार प्रतिक्रमणस्वरूप है। - ऐसा जिनेन्द्र भगवान के मुखकमल में से निकले द्रव्यश्रुत में कहा है। __उक्त चार ध्यानों में आरंभ के आर्त और रौद्र - ये दो ध्यान हेय हैं, धर्मध्यान नामक तीसरा ध्यान उपादेय है और शुक्लध्यान नामक चौथा ध्यान सर्वदा उपादेय है।"
इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
आर्त और रौद्र - दोनों ध्यान संसार दुःख के मूल हैं, स्वर्ग और मोक्ष के अपरिमित सुख के प्रतिपक्षी हैं। इन ध्यानों से मोक्ष का सुख तो मिलता ही नहीं, किन्तु स्वर्ग का सुख भी नहीं मिलता।
रौद्रध्यान पंचम गुणस्थान तक तथा आर्तध्यान छठवें गुणस्थान तक पाया जाता है। यह जितना भी है, वह सब बंध का कारण है, संसार दुःख का मूल है; अतः सर्वथा त्याज्य ही है। ___ अपना आत्मा ज्ञायकस्वभावी है, पुण्य-पापरहित है। ऐसे अपने आत्मा के आश्रय से जो वीतरागी ध्यान प्रगट होता है, वह धर्मध्यान है। जितनी एकाग्रता है, वह शान्ति और मोक्ष का कारण है और जितना राग (व्रत का अथवा देव-गुरु-शास्त्र का) वर्त्तता है, उससे पुण्य बंधता है तथा उसके फल में स्वर्ग का सुख मिलता है।
पंचेन्द्रिय के लक्ष से भिन्न होकर शुद्ध चैतन्य स्वभाव की तरफ लक्ष करने पर निर्भेद परमकलासहित निश्चय शुक्लध्यान होता है।
इसप्रकार धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्याकर जो भव्यपुरुष पारिणामिकभावनारूप से परिणमा है, जिसको निमित्त की अथवा निमित्त के अभाव की अपेक्षा नहीं- ऐसे स्वभावभाव में एकाग्रतारूप जिसका परिणमन है, वह निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप है। इसप्रकार देवाधिदेव श्री तीर्थंकर भगवान के मुखकमल में से निर्गत द्रव्यश्रुत में कहा है।
यहाँ इस काल में शुक्लध्यान नहीं है, धर्मध्यान है। साधकजीव १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७२०
२. वही, पृष्ठ ७२०