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नियमसार अनुशीलन एकावतारी होकर स्वर्ग में जावेगा, तथापि भान है कि निर्बलता के कारण अग्रिमभव धारण करना पड़ेगा। पुरुषार्थ में जितनी कचास रह गई, उसके कारण स्वर्ग मिला। राग का फल स्वर्ग है - ऐसा ज्ञानी जानता है। धर्मी जीव राग का स्वामी नहीं होता, वह तो उसका अभाव करके मनुष्य होकर केवलज्ञान प्राप्त करेगा।'
चार ध्यानों में से प्रथम के दो ध्यान - आर्त व रौद्र छोड़ने योग्य हैं; उनमें विकार की एकाग्रता है, जबकि धर्म और शुक्लध्यान में स्वभाव की एकाग्रता है । धर्मध्यान प्रथम भूमिका में उपादेय है और शुक्लध्यान सर्वदा उपादेय है । शुक्लध्यान भी यद्यपि पर्याय है, तथापि विकार का नाश करके मोक्ष प्रगट कराता है; अतः सर्वदा उपादेय कहा है, पर्याय अपेक्षा से उपादेय कहा है।
वास्तव में देखा जावे तो धर्मी जीव को एक शुद्ध आत्मा ही उपादेय है। दृष्टि तो किसी भेद या विकार को स्वीकारती ही नहीं, किन्तु धर्मध्यान और शुक्लध्यान की पर्यायें भी सम्यग्दर्शन का विषय नहीं हैं, कारण कि वे दोनों ध्यान यद्यपि वीतरागी हैं, परन्तु हैं तो एकसमय की पर्याय ही। __पर्याय के ऊपर लक्ष जाने से भेद पड़ता है और राग होता है, इसलिए अभेद द्रव्यस्वभाव की दृष्टि कराने के लिए शुक्लध्यान की पर्याय को गौण करके व्यवहार कहकर अभूतार्थ कहा है। भूतार्थ त्रिकाली स्वभाव में वह नहीं है, अतः दृष्टि के विषय में तो शुद्धस्वभाव एक ही उपादेय है। परन्तु यहाँ तो ध्यान के भेदों का ज्ञान कराना है, इसलिए आर्त और रौद्रध्यान से भिन्न करने के लिए वीतरागी पर्यायस्वरूप धर्मध्यान और शुक्लध्यान को उपादेय कहा है। शुक्लध्यान मोक्ष का निश्चित कारण है, इसलिए सर्वदा उपादेय कहा है - ऐसी अपेक्षा समझना।"
यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि टीकाकार मुनिराज ने आर्तध्यान में १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७२१
२. वही, पृष्ठ ७२२
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