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२५८ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र....
Nirgrantha पर एवं तदनुसार केवल आत्म सापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष मान लेने पर लोक-व्यवहार में प्रत्यक्ष रूप से प्रसिद्ध इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष की समस्या के समन्वय हेतु उमास्वाति के उत्तरवर्ती आचार्यों ने प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष एवं पारमार्थिक-प्रत्यक्ष ये दो भेद किये । इन दोनों भेदों का कोई सूचन तत्त्वार्थाधिगम सूत्र या भाष्य में नहीं मिलता । उमास्वाति ने स्पष्ट रूप से इन्द्रियादि निमित्त से होने वाले ज्ञान को परोक्ष की संज्ञा दी है, प्रत्यक्ष की नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि बाद के आचार्यों ने कमोबेश नैयायिकों से प्रभावित होकर अपनी प्रत्यक्ष प्रमाणमीमांसा में इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का समावेश किया और उमास्वाति के बताये अवधि, मनःपर्यय एवं केवल को पारमार्थिक-प्रत्यक्ष की संज्ञा दी । अतः हम प्रथमतया अवधि, मन:पर्यय की और केवल की ही विवेचना करेंगे एवं यथास्थान सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष को भी संक्षिप्त व्याख्या करेंगे । [१] अवधिज्ञान :
अवधि का अर्थ है - सीमा या मर्यादा, अर्थात् वह मर्यादित ज्ञान जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल रूपी पदार्थों को स्पष्ट रूप से जानता है, अवधि ज्ञान है । यह ज्ञान अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है ।
अवधिज्ञान दो प्रकार का है - (१) भवप्रत्यय (२) गुणप्रत्यय (क्षयोपशमनिमित्तक)
(१) भवप्रत्यय :- नारक और देवों को जो अवधिज्ञान होता है उसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं.२ । 'भव' कहते हैं-आयुनाम कर्म के उदय का निमित्त पाकर होनेवाले जीव के पर्यायों को, और 'प्रत्यय' शब्द का अर्थ है-हेतु अथवा निमित्त कारण । अतः भव ही जिसमें निमित्त हो, वह भवप्रत्यय है । नारक और देवों के अवधिज्ञान में उस भव में उत्पन्न होना ही कारण माना गया है । जैसे पक्षियों का आकाश में गमन करना स्वभाव से या उस भव में जन्म लेने मात्र से ही आ जाता है, उसके लिए शिक्षा या तप कारण नहीं है उसी प्रकार जो जीव नरकगति या देवगति को प्राप्त होते हैं उन्हें अवधिज्ञान भी स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।३ । उमास्वाति ने जो 'यथायोग्य शब्द का निर्देश किया है उसका तात्पर्य है कि सभी देव अथवा नारकियों को अवधिज्ञान समान नहीं होता । जिसमें जितनी योग्यता है उसके अनुसार उन्हें उतना ही होता है।५ । अवधेय है कि तीर्थंकर को जन्म से अवधि ज्ञान होने पर भी उनके अवधिज्ञान को भवप्रत्यय नहीं मानते क्योंकि उक्त अवधिज्ञान में तीर्थंकर की आत्मा के गुण कारणभूत हैं ।
प्रश्न उठता है कि देवों तथा नारकों को उस भव में जन्मग्रहण करने मात्र से अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हें व्रत नियमादि पालन करने की आवश्यकता नहीं होती तो मनुष्यादि को इसके लिए प्रयास क्यों करना पड़ता है ?
वस्तुतः क्षयोपशम तो सभी के लिए आवश्यक है । अन्तर साधन में है । जो जीव केवल जन्म मात्र से क्षयोपशम कर सकते हैं उनका अवधिज्ञान भवप्रत्यय है एवं जिन्हें इसके लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता है, उनका अवधिज्ञान क्षयोपशम निमित्तक या गुणप्रत्यय है । उमास्वाति 'देवनारकाणाम्' पद से सम्यग्दृष्टियों का ग्रहण करते हैं, क्योंकि सूत्र में अवधिपद का ग्रहण है । मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान विभंगज्ञान कहलाता है । अतः उमास्वाति यह मानते हैं कि देव व नारकियों में भी उन्हीं को भव के प्रथम समय से अवधिज्ञान होता है, जो सम्यग्दृष्टि होते हैं । मिथ्यादृष्टियों को विभंगज्ञान होता है६ ।।
(२) गुण प्रत्यय (क्षयोपशमनिमित्तक):- क्षयोपशमनिमित्तक ज्ञान शेष दो गतिवाले जीव-तिर्यञ्च और मनुष्य को होता है । अवधिज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्पर्धकों का उदय रहते हुए सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय और अनुदय प्राप्त इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम इन दोनों के निमित्त से जो होता है वह क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान है।८ । तिर्यश्च और मनुष्य को होनेवाला यह गुणप्रत्यय-अवधिज्ञान सबको नहीं होता, उनमें भी जिनको
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