________________
तपागच्छ- बृहद् पौषालिक शाखा
शिवप्रसाद
तपागच्छ के प्रवर्तक आचार्य जगच्चन्द्रसूरि के कनिष्ठ शिष्य विजयचन्द्रसूरि से तपागच्छ की बृहद् पौषालिक शाखा अस्तित्व में आयी । प्राप्त विवरणानुसार आचार्य जगच्चन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य विजयचन्द्रसूरि १२ वर्षों तक स्तम्भतीर्थ (खंभात) की उस पौषधशाला में रहे, जहाँ उनके गुरु ने ठहरने का निषेध किया था । इस अवधि में उनके ज्येष्ठ गुरुभ्राता देवेन्द्रसूरि ने मालवा प्रान्त में विचरण किया, वहाँ से जब वे स्तम्भतीर्थ लौटे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि विजयचन्द्रसूरि अभी तक उसी पौषधशाला में हैं तथा उन्होंने साधुजीवन में पालन करने वाले कई कठोर नियमों को पर्याप्त शिथिल भी कर दिया है। इसी कारण वे स्तम्भतीर्थ की दूसरी पौषधशाला, जो अपेक्षाकृत कुछ छोटी थी, में ठहरे । इस प्रकार जगच्चन्द्रसूरि के दो शिष्य एक ही नगर में एक ही समय में दो अलग-अलग स्थानों पर रहे । बड़ी पौषधशाला में ठहरने के कारण विजयचन्द्रसूरि का शिष्यपरिवार बृहद्पौषालिक एवं देवेन्द्रसूरि का शिष्यसमुदाय लघुपौषालिक कहलाया। साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों ही साक्ष्यों में इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं जैसे—बृहद्तपागच्छ, वृद्धतपागच्छ, बृहद्पौषालिक, वृद्धपौषालिक, बृहद्पौषधषालिक आदि । तपागच्छ की इस शाखा में आचार्य क्षेमकीर्ति, आचार्य रत्नाकरसूरि, जयतिलकसूरि, रत्नसिंहसूरि, जिनरत्नसूरि, उदयवल्लभसूरि, ज्ञानसागरसूरि, उदयसागरसूरि, धनरत्नसूरि, देवरत्नसूरि, देवसुन्दरसूरि, नयसुन्दरगणि आदि कई विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं ।
तपागच्छ की इस शाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत इससे सम्बद्ध मुनिजनों द्वारा रचित कृतियों की प्रशस्तियाँ, उनके द्वारा प्रतिलिपि किये गये ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ एवं वि. सं. की १७वीं शताब्दी में नयसुन्दरगणि द्वारा रचित एक पट्टावली भी है। इसके अलावा इस शाखा के मुनिजनों द्वारा समय-समय पर प्रतिष्ठापित बड़ी संख्या में सलेख जिनप्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं जो वि. सं. १४५९ से लेकर वि. सं. १७८१ तक की हैं । प्रस्तुत निबन्ध में उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर इस शाखा के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है ।
इस शाखा के आद्यपुरुष विजयचन्द्रसूरि द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है, तथापि अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता देवेन्द्रसूरि द्वारा रचित कुछ कृतियों की रचना में सहयोग अवश्य प्रदान किया था । इनके शिष्यों के रूप में वज्रसेन, पद्मचन्द्र और क्षेमकीर्ति का नाम मिलता है। क्षेमकीर्ति द्वारा रचित ४२००० श्लोक परिमाण की बृहद्कल्पसूत्रवृत्ति प्राप्त होती है जो वि. सं. १३३२ / ई. सं. १२७६ में रची गयी है। इसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है:
धनेश्वरसूरि
भुवनचन्द्रसूरि
देवभद्रगणि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org