________________
३२९
Vol. III - 1997-2002
तपागच्छ - बृहद्पौषालिक शाखा वि. सं. १५०७ ज्येष्ठ सुदि २ सोमवार (दो प्रतिमालेख) वि. सं. १५०७ ज्येष्ठ सुदि १० सोमवार (एक प्रतिमालेख) वि. सं. १५०८ आषाढ़ सुदि २ सोमवार (एक प्रतिमालेख) वि. सं. १५०८ आषाढ़ सुदि ९ शुक्रवार (एक प्रतिमालेख) वि. सं. १५०९ ज्येष्ठ वदि ९ गुरुवार
(एक प्रतिमालेख) वि. सं. १५०९ आषाढ़ सुदि ९ सोमवार (एक प्रतिमालेख) वि. सं. १५०९ पौष वदि १० गुरुवार
(एक प्रतिमालेख) सं. १५०९ माघ सुदि ५ शुक्रवार (एक प्रतिमालेख)
सं. १५०९ फाल्गुन सुदि ३ गुरुवार (एक प्रतिमालेख) वि. सं. १५१० वैशाख वदि ५ सोमवार (एक प्रतिमालेख)
सं. १५१० ज्येष्ठ सुदि ३ गुरुवार (तीन प्रतिमालेख) वि. सं. १५१० माघ सुदि १०
(एक प्रतिमालेख) सं. १५११ ज्येष्ठ वदि ९ शनिवार (एक प्रतिमालेख) वि. सं. १५११
पौष वदि ६ गुरुवार (एक प्रतिमालेख) वि. सं. १५१३ वैशाख सुदि ५ गुरुवार (दो प्रतिमालेख) वि. सं. १५१४ माघ सुदि २ शुक्रवार (तीन प्रतिमालेख) वि. सं. १५१५ ज्येष्ठ वदि १ शुक्रवार
(एक प्रतिमालेख) वि. सं. १५१६ आषाढ़ सुदि ९ शुक्रवार (एक प्रतिमालेख) वि. सं. १५१७ माघ सुदि ४ शुक्रवार (दो प्रतिमालेख) वि. सं. १५१८ माघ सुदि १० मंगलवार (एक प्रतिमालेख)
वि. सं. १५०१ में भवभावनासूत्रबालावबोध-एवं नेमीश्वरचरित्र के कर्ता माणिक्यसुन्दरगणि१५ रत्नसिंहसूरि के शिष्य थे ।
वि. सं. १५१४ में लिखी गयी उत्तराध्ययनसूत्रअवचूरि की प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार उदयमंडन ने स्वयं को रत्नसिंहसूरि का शिष्य कहा है।
वि. सं. १५०७ में वाक्यप्रकाशौक्तिक के रचनाकार उदयधर्म भी रत्नसिंहसरि के ही शिष्य थे ।
वि. सं. १५०९ में रत्नचूड़ामणिरास एवं वि. सं. १५१६ में जम्बूरास के कर्ता ने अपना नाम उल्लिखित न करते हुए स्वयं को मात्र रत्नसिंहसूरिशिष्य कहा है ।
रत्नसिंहसूरिशिष्य द्वारा रचित गिरनारतीर्थमाला नामक एक कृति प्राप्त होती है। इसमें स्तम्भतीर्थ के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org..