Book Title: Nirgrantha-3
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

Previous | Next

Page 376
________________ ३३१ Vol. III - 1997-2002 तपागच्छ - बृहपौषालिक शाखा रचनाकार ने स्वयं अपना नाम न देते हुए मात्र सौभाग्यसागरसूरिशिष्य कहा है । लब्धिसागरसूरि धनरत्नसूरि सौभाग्यसागरसूरि उदयसौभाग्य सौभाग्यसागरसूरिशिष्य [वि. सं. १५९१ में हैमप्राकृत पर [वि. सं. १५७८ में चम्पकमालाढुंढिका के कर्ता] रास के रचनाकार] लब्धिसागरसूरि के पट्टधर धनरत्नसूरि का विशाल शिष्य परिवार था जिनमें अमररत्नसूरि, तेजरत्नसूरि, देवरत्नसूरि, भानुमेरुगणि, उदयधर्म, भानुमंदिर आदि उल्लेखनीय हैं । धनरत्नसूरि द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, यही बात इनके पट्टधर अमररत्नसूरि के बारे में कही जा सकती है। अमररत्नसूरि के पट्टधर उनके गुरुभ्राता तेजरत्नसूरि हुए जिनके शिष्य देवसुन्दर का नाम वि. सं. १६३७ के प्रशस्तिलेख५ में प्राप्त होता है। तेजरत्नसूरि के दूसरे शिष्य लावण्यरत्न हुए जिनकी परम्परा में हुए सुखसुन्दर ने वि. सं. १७३९ में कल्पसूत्रसुबोधिका की प्रतिलिपि की३६ । इसकी प्रशस्ति२७ में इन्होंने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है : तेजरत्नसूरि लावण्यरत्न ज्ञानरत्न जयसुन्दर रत्नसुन्दर विवेकसुन्दर सहजसुन्दर सुखसुन्दर [वि. सं. १७३९ में कल्पसूत्रसुबोधिका के प्रतिलिपिकार] चूँकि उक्त प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार ने अपनी लम्बी गुरु-परम्परा दी है, अत: इस शाखा के इतिहास के अध्ययन में यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है। अमररत्नसूरि के दूसरे पट्टधर देवरत्नसूरि भी इन्ही के गुरुभ्राता थे । इनके शिष्य जयरत्न द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनकी परम्परा में हुए कनकसुन्दर द्वारा वि. सं. १६६२-१७०३ के मध्य रचित विभिन्न रचनायें मिलती है, जो इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396