Book Title: Nirgrantha-3
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 365
________________ ३२० प्रेम सुमन जैन Nirgrantha करती है, जो अपने श्रेष्ठतम गुणों के कारण परमात्मा हो चुकी है। ऐसे अनेक परमात्मा जैन धर्म में स्वीकृत हैं, जो अनन्त सुखों का अनुभव करते हैं तथा इस संसार से मुक्त हैं । ऐसे परमात्माओं को जैन आचारसंहिता में "अर्हत" एवं "सिद्ध" कहा गया है । ये वे परम आत्माएँ हैं, जिन्होंने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर आत्मा के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार किया है। इन्हें "आप्त", "सर्वज्ञ" "वीतरागी", "केवली" आदि नामों से भी जाना जाता है । इन अर्हत एवं सिद्धों की भक्ति तथा पूजा करने का विधान भी जैन आचार-संहिता में है, किन्तु इनसे कोई सांसारिक लाभ की अपेक्षा नहीं की जाती । इनकी भक्ति उनके आध्यात्मिक गुणों को प्राप्त करने के लिये ही की जाती है, जिसके लिये भक्त को स्वयं पुरुषार्थ करना पड़ता है२२ । इस भक्ति से व्यक्ति की भावनाएँ पवित्र होती है, जिससे उसका आचरण निरन्तर शुद्ध होता जाता है, तथा आत्मा क्रमशः विकास को प्राप्त होती है । जैन आचार-संहिता की तीन कोटियाँ मानी गयी हैं । - १. "बहिरात्मा", जो शरीर को ही आत्मा समझता हुआ सांसारिक विषयों में लीन रहता है, २. "अन्तरात्मा", जो शरीर और आत्मा के भेद को समझता है तथा शरीर के मोह को छोड़कर आत्मा के स्वरूप को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, तथा ३. "परमात्मा" जिसने आत्मा के सच्चे स्वरूप को जान लिया है और जो अनन्त ज्ञान तथा सुख का धनी है । यथा - अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरप्पा हु अप्पसंकप्पो । . कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ॥२३ आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के इस विकास मार्ग का प्रतिपादन किया था२४, जिसका अनुगमन अन्य जैनाचार्यों ने किया है। अन्य भारतीय दर्शनों में भी आत्मा के विकास के इन स्वरूपों को विभिन्न नामों से वर्णित किया गया है । उपनिषदों में आत्मा के ज्ञानात्मा, महदात्मा और शुद्धात्मा ये तीन भेद किये गये हैं। दूसरे शब्दों में शरीरात्मा, जीवात्मा और परमात्मा भी आत्मा की अवस्थाएँ बतायी गयी हैं । परमतत्त्व के नाम एवं गुण : जैन धर्म में परमतत्त्व मुक्त आत्मा को माना गया है। उनकी अवस्थाओं और गुणों के कारण उन्हें अर्हन्त, सिद्ध, केवली, जिन, तीर्थंकर, आप्त, सर्वज्ञ, परमात्मा, वीतराग आदि नामों से जाना जाता है । इन सब में प्रमुख गुण समान हैं कि वे मुक्त अवस्था में होने के कारण सभी दुःखों से रहित हैं। उनमें १००८ लक्षण शास्त्रों में गिनाये गये हैं२५ । किन्तु उनके ४ प्रमुख गुण-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, एवं अनन्त वीर्य प्रसिद्ध हैं२६ । इन गुणों के साथ तुलना करने पर ज्ञात होता है कि हिन्दू धर्म के ईश्वर, ब्रह्म या परमात्मा में भी ज्ञान, शक्ति, माहात्म्य, गौरव आदि गुण स्वीकार किये गये हैं । क्योंकि ईश्वर की उपास्यता बिना गुणों के हो नहीं सकती है । पाश्चात्य दर्शनों में भी ईश्वर को व्यक्तित्वपूर्ण, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, पूर्णज्ञान, इच्छा स्वातन्त्र्य, नित्य एवं शुभत्व आदि गुणों से युक्त मानने की बात कही गयी है । यद्यपि ईश्वर सम्बन्धी गुणों का कथन असंज्ञानात्मक ही होता है । फिर भी भारतीय दर्शनों में ईश्वर को अपरिमित गुणों का भण्डार माना गया है । जैन ग्रन्थों में भी तीर्थंकर के कई अतिशय उनकी विशिष्टता के रूप में वर्णित है२९ । कुछ जैन ग्रन्थों में परमात्मा के गुणों का वर्णन अभावात्मक दृष्टि से भी किया गया है। मुक्तात्मा न दीर्घ है, न हुस्व है, न कृष्ण है, न श्वेत है, न गुरु है, न लघु है, न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है । अतः परमात्मा का स्वरूप अनिर्वचनीय है । शांकर सिद्धान्त का नेति, नेति और पाश्चात्य विचारक अक्वाइनस का नकारात्मक सिद्धान्त जैन दर्शन के अभावात्मक दृष्टिकोण से समानता रखते हैं । इनसे यह अनुभव किया जा सकता है कि परमसत्ता के गुणों एवं नामों की सार्थकता उन्हें प्रतीकात्मक रूप में स्वीकार करने में है। इससे चिन्तन के क्षेत्र में समन्वय को बल मिलता है। जैन दर्शन की मान्यता है कि निश्चय For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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