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Vol. III-1997-2002 जैन एवं हिन्दू धर्म में....
३२१ नय के अनुसार परमात्मा शुद्ध चैतन्यमय है। उसके गुणों का बखान करना व्यावहारिक नय से संभव है। उसकी उपासना हम विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से करते हैं, जो उसके गुणों का स्वयं साक्षात्कार करने के लिए होती है। उमास्वामी ने ठीक ही कहा है कि "मैं उस परमात्मा को नमन करता हूँ जो मोक्षमार्ग का नेता है, कर्मरूपी पर्वतों को नष्ट करने वाला है और विश्व के समस्त तत्त्वों का ज्ञाता है, ताकि मैं उसके गुणों का साक्षात्कार कर सकूँ ।" यही बात पाश्चात्य दार्शनिक पालनीलिख स्वीकार करते हैं कि परमसत्ता वर्णविहीन, शुद्ध उजला पर्दा है। इसे लिखा तो जा सकता है, परन्तु इसका वर्णन नहीं किया जा सकता३२ ।
परमसत्ता के लिए प्रयुक्त नामों का जैन एवं हिन्दू धर्मों में समान रूप से प्रयोग हुआ है । हिन्दू धर्मों में प्रयुक्त जगस्वामी, ज्ञानी, हरि, हर, ब्रह्मा, पुरुषोत्तम आदि सैकड़ों नाम जैन तीर्थकरों के लिए प्रयुक्त हुए हैं। किन्तु इन नामों को प्रतीकों के रूप में लिया गया है । जिसके स्मरण से गुणों की वृद्धि हो वह "ब्रह्म" है, जिस आत्मा का ब्रह्मचर्य अखण्डित रहा है वह "परमब्रह्म" है, केवल ज्ञान आदि गुणों के ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण आत्मा "ईश्वर" है, वह समस्त कर्मों के मल से रहित होकर, आठ गुणों के "ऐश्वर्य" को धारण करता है इसलिए "परमेश्वर" है, आत्मा स्वदेह में व्याप्त होने के कारण "विष्णु" है। स्वयं ही अपने विकास का कारण है इसलिए "स्वयम्भू" है३३ । आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को "हिरण्यगर्भ", "ब्रह्मा", "प्रजापति" आदि विशेषण प्रदान किये गये हैं, जो उनके विभिन्न गुणों के सूचक हैं। इसी तरह वैदिक ग्रन्थों में भी जैन तीर्थकरों के कई नामों को विष्णुसहस्त्रनाम आदि में सम्मिलित किया गया है। अतः परमसत्ता के निरूपण में समन्वय की एक धारा का अवलोकन जैन एवं हिन्दू धर्मों के साहित्य में किया जा सकता है। दोनों धर्मों में परमात्मा के नामों में उपर्युक्त समानता होते हुए कुछ अन्तर भी है। किन्तु यहाँ नामों का महत्त्व नहीं है, गुणों का महत्त्व है इसीलिए एक जैन सन्त ने कहा है कि मैं उस परमतत्त्व को सदा नमन करता हूँ जो रागद्वेष जैसे आत्मा को दूषित करने वाले विष से रहित है, अनुकम्पा से भरा हुआ है और समस्त गुण-समूहों से पूर्ण है, चाहे वह विष्णु हो, शिव हो, ब्रह्मा हो, सुरेन्द्र हो, सूर्य हो, चन्द्र हो, भगवान् हो, बुद्ध हो या सिद्ध हो । परमतत्त्व की प्राप्ति के मार्ग :
जैन एवं हिन्दू धर्म में केवल परमतत्त्व के स्वरूप, उसके गुण एवं उसके नामों ही में समानता नहीं है, अपितु उस परमतत्त्व को प्राप्त करने, अनुभव करने के मार्गों में भी प्रायः एकरूपता दृष्टिगोचर होती है। जैनधर्म में तत्त्व निरूपण द्वारा लोक के स्वरूप का विवेचन करके तथा कर्म सिद्धान्त के प्रतिपादन द्वारा मनुष्य में संकल्प और पुरुषार्थ की जागृति करके उसे आत्मा साधना का जो मार्ग बतलाया गया है, वही जैन आचार-संहिता का प्रथम सोपान है। जैनाचार्य उमास्वामी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र इन तीनों को मोक्ष का मार्ग कहा है। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:
मोक्ष मार्ग में इन तीनों की प्रधानता होने से इन्हें "त्रिरत्न" भी कहा गया है। इन तीनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है५ । सम्यग्दर्शन आत्म-साधना का प्रथम सोपान है। जीव, अजीव आदि तत्त्वों के स्वरूप पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । इससे व्यक्ति का दृष्टिकोण सही बनता है । सम्यग्दर्शन के उपरान्त साधक सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करता है। जिन तत्त्वों पर उसने श्रद्धान किया था, उन्हीं को वह पूर्ण रूप से जब जानता है, तब उसे सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है । सत्य की अखण्डता को आदर देते हुए उसके बहुआयामों को जानने का प्रयत्न करना ही सम्यग्ज्ञान का विषय है । जैन ग्रन्थों में सम्यग्चारित्र का विवेचन गृहस्थों और साधुओं की जीवनचर्या को ध्यान में रखकर किया गया है। साधु जीवन के आचरण का प्रमुख उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार है, जबकि गृहस्थों
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