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कमलेश कुमार जैन
Nirgrantha
के कथन का रूपान्तर है। मूल वाक्य इस प्रकार है४ " पक्षो धर्मी अवयवे समुदायोपचारात्" ।
कारिका संख्या ६/२ की वृत्ति में " इति सूक्तं स्यात्" के साथ "यतः पक्ष शब्देन समुदायस्यावचनात् धर्मिण एव वचनात् तदंशवत् तद्धर्मो न तदेकदेशः "६५ वाक्य आया है। प्रमाणवार्तिक स्ववृत्ति में "तदा हि वक्तुरभिप्रायवशान्न तदेकदेशतः तदंश पक्षशब्देन समुदायावचनात् " ६६ इस प्रकार कथन पाया जाता है । सिद्धिविनिश्चय का कथन इसी पर आधारित प्रतीत होता है ।
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कारिका संख्या ६/२ की वृत्ति में " व्याप्तिर्व्यापकस्य तत्र भाव एव व्याप्यस्य वा तत्रैव भाव: "६७ वाक्य पाया जाता है । यह हेतुबिन्दु का वचन है । कहा गया है१८
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तस्य व्याप्तिर्हि व्यापकस्य तत्र भाव एव । व्याप्यस्य वा तत्रैव भावः ।
कारिका संख्या ६ / ९ की वृत्ति में " अतीतैककालानां गतिर्नानागतानां व्यभिचारात् इति कोऽयं प्रतिपत्तिक्रमः तथैव व्यवहाराभावात् " ६९ वाक्य आया है । कारिका संख्या ६/ १६ की वृत्ति में भी " तादात्म्येन कुतश्चित्" करके यही "अतीतैककालानां गतिर्नानागतानां व्यभिचारात् " वाक्य उद्धृत है ।
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यह प्रमाणवार्तिक स्ववृत्ति का वचन है । वहाँ पर पूर्ण कारिकांश इस प्रकार है- अतीतैककालानां गतिर्नानागतानां व्यभिचारात् " लगभग इसी का कथन वाली एक अन्य कारिका है७२
" शक्तिप्रवृत्या न विना रसः सैवान्यकारणम् । इत्यतीतैककालानां गतिस्तत्कार्यलिंगजा ॥ "
यह कारिका सिद्धिविनिश्चय टीका भाग २ पृष्ठ ६८६ पर उल्लिखित है । इसका निर्देशस्थल ज्ञात नहीं है । १९७३ इति
कारिका संख्या ६/३१ की वृत्ति का प्रारम्भ "मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्" मत्यादीनां तादात्म्यलक्षणं सम्बन्धमाह सूत्रकारः' से हुआ है । यह तत्त्वार्थसूत्र का सूत्र है७४ ।
कारिका संख्या ६/३७ की वृत्ति में " तथा च " करके निम्नलिखित दो कारिकाएँ दी गयी हैं७५
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" दध्यादौ न प्रवर्त्तेत बौद्धः तद्भुक्तये जनः । अदृश्यां सौगतीं तत्र तनूं संशंकमानकः ॥ दध्यादिके तथा भुक्ते न भुक्तं कांजिकादिकम् । इत्यसौ वेत्तु नो वेत्ति न भुक्ता सौगती तनुः ॥ इति "
सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्य ने भी “ तथा च " करके उक्त दोनों कारिकाओं को यथावत् उद्धृत किया है७६ । "दध्यादौ” आदि उक्त दोनों कारिकाएँ कहाँ की है, यह स्पष्ट नहीं है। संभव है, इनकी रचना स्वयं अकलंकदेव ने की हो, परन्तु किसी सबल प्रमाण के बिना कुछ भी निश्चय करना कठिन है।
कारिका संख्या ७/६ की वृत्ति में "यतः " करके "पूर्वस्य वैकल्यमपरस्य कैवल्यम्" आया है । यह बौद्ध दार्शनिक का कथन है । यह वाक्य हेतुबिन्दु से लिया गया है ।
कारिका संख्या ७/ ११ की वृत्ति में " तन्न" करके "यथादर्शनमेवेयं माननेय (मेय) फलस्थितिः "७९ वाक्य उद्धृत है । यह संभवतः प्रमाणवार्तिक की एक कारिका का ही पूर्वार्ध है । दोनों में अन्तर यही है कि "यथानुदर्शनमेवेयं के स्थान पर प्रमाणवार्तिक में "यथानुदर्शनञ्चेयं" पाठ मिलता है । प्रमाणवार्तिक की पूर्णकारिका इस प्रकार है
"७७ यह वाक्य
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