Book Title: Nirgrantha-3
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 341
________________ जितेन्द्र शाह Nirgrantha २९६ मानता है । यह एक विशुद्ध दार्शनिक विषय है तथापि टीकाकार सूरि ने उसका सम्बन्ध धर्मसाधन से स्थापित किया है। के० के० दीक्षित भी मानते है कि इन आएकों का भी आचारशास्त्रीय तथा धर्मशास्त्रीय समस्याओं से दूर का सम्बन्ध नहीं है क्योंकि इनकी सहायता से भी आचार्य हरिभद्र ने कतिपय आचारशास्त्रीय तथा धर्मशास्त्रीय मान्यताओं का ही पुष्ट-पोषण करना चाहा है। यह सत्य है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने १६ अष्टक में जैन दर्शन सम्मत अनेकान्तवाद का ही स्थापन किया है, तथापि समग्रतया अष्टक के अध्ययन से आचार्य श्री की उदात आचरण की आवश्यकता एवं परमत सहिष्णुता ही द्योतित होती है जो अन्यत्र दुर्लभ ही है। अनेकान्तवाद : 1 जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है आगमिक काल में विभज्जवाद और स्यात् जैसे शब्द प्रचलित । थे। बाद में अनेकान्तवाद ही प्रचलित हो गया। अनेकान्तवाद का अर्थ है प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म मौजूद है। एक ही पदार्थ में नित्य, अनित्य, वाच्य, अवाच्य, सामान्य विशेष सत् असत् आदि विरोधी धर्म भी उपलब्ध होते है जब कि जैन दर्शन से भिन्न अन्य दर्शन एकान्तवादी है जो पदार्थ को एकात्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य, एकान्त सत् या एकान्त असत् मानते है नैयायिक, वैशेषिक आदि पदार्थ को सर्वथा सत् एवं नित्य हो मानते है और बौद्ध पदार्थ को क्षणिक मानते है एक शाश्वतवादी है, दूसरा उच्छेदवादी है। जैन दर्शन न तो शाश्वतवादी है, न ही उच्छेदवादी । वह दोनों धर्मों का स्वीकार करते है और दोनों को अपेक्षा से सिद्ध भी करते है । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से पदार्थ नित्य है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से पदार्थ अनित्य है। व्यवहार में भी पदार्थ को अनेकान्त स्वरूप मानना आवश्यक है। उनके बिना व्यवहार ही नहीं चल सकता इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने तो कहा ही है जिसके बिना इस जगत् का व्यवहार ही सर्वथा नहि चल सकता, उस जगद्गुरु अनेकान्तवाद को बारंवार नमस्कार हो । इसी बात को आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने कुछ अन्य तरीके से कहा है कि प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म अस्तित्व रखते है। पदार्थ में अनन्त धर्म माने बिना वस्तु की सिद्धि ही नहीं होती। इस प्रकार जैन दर्शनकारों ने पदार्थ में अनन्तधर्म का अस्तित्व माना है। पदार्थ को एकान्त मानने से अनेक आपत्ति आती है जिनका तर्कसंगत समाधान प्राप्त नहीं होता है। जब कि अनेकान्तवाद का स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं । जैसा कि ऊपर कहा गया है जीव और अजीव सभी तत्त्व अनन्त धर्मात्मक है। आ० हरिभद्र ने अष्टक प्रकरण में केवल आत्मतत्त्व को लेकर ही १४ और १५वे अष्टक में एकान्तवादीओं की मर्यादाओं का कथन किया है, उन मर्यादाओं का समाधान १६वे अटक में करके अनेकान्तवाद का स्थापन किया गया है। एकान्त नित्यवाद : नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य एवं औपनिषदिक मतावलम्बी एकान्त नित्यवादी है। उनके मत में आत्मतत्त्व अनुत्पन्न, अप्रच्युत एवं स्थिरैक रूप अर्थात् आत्मतत्त्व कभी उत्पन्न नहीं हुआ, कभी नाश नहीं होता है और सर्वथा एकरूप ही रहनेवाला है । आत्मतत्त्व को एकान्तनित्य स्वरूप मानने पर हिंसा, अहिंसा, वध, विरति, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, जन्म, मृत्यु आदि घटित नहीं हो पाएँगे। अपरिवर्तिष्णु होने के कारण आत्मतत्त्व निष्क्रिय हो जाएगा । टीकाकार जिनेश्वरसूरि ने इन विषय पर गंभीर दार्शनिक चिन्तन किया है । उन्होंने टीका में यह कहा है कि यदि निष्क्रिय आत्मतत्त्व में भी आप क्रिया का स्वीकार करते हैं तब यह जिज्ञासा खड़ी होती है कि नित्य आत्मतत्त्व क्रम से किया करता है या अक्रम अर्थात् युगपत् क्रिया करता है? यदि आप प्रथम पक्ष का स्वीकार करके यह कहें कि आत्मतत्त्व क्रम से किया करता है तब एक और प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि वह कार्य करते समय कार्यान्तर करने में समर्थ है या असमर्थ है ? उसको असमर्थ मानना तो आपत्तिजनक होगा चूंकि आत्मतत्त्व सर्वथा नित्य है । आपके मत में आत्मा एकरूप होने के कारण सर्वथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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