Book Title: Nirgrantha-3
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

Previous | Next

Page 340
________________ अनेकान्तवाद (हरिभद्रसूरि विरचित अष्टक प्रकरण पर आधारित) जितेन्द्र शाह अनेकान्तवाद जैन धर्म का प्रमुख सिद्धान्त है । जहाँ अन्य दर्शन एक ही धर्म को प्रमुख मानकर चलते हैं वहाँ जैन धर्म-दर्शन वस्तु के अनेक धर्मों को स्वीकार करके उसकी सिद्धि करते है । यही जैन दर्शन की विशेषता है। जैन दर्शन के इस सिद्धान्त की चर्चा आगम ग्रंथों में यत्र तत्र प्राप्त होती है। किन्तु सन्मतितर्क सत्र में सर्व प्रथम आचार्य सिद्धसेन ने एवं आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा आदि ग्रंथों में अनेकान्तवाद का युक्तियुक्त स्थापन किया है। इसीलिए पं० सुखलालजी आदि जैन मनीषी इस युग को अनेकान्त व्यवस्थापक युग कहकर पुकारते है। तत्पश्चात् आचार्य मल्लवादी एवं अकलंक एवं अन्य जैनाचार्यों ने अनेकान्तवाद की महत्ता को स्थापित करने वाले ग्रंथों की रचना की है । इस श्रेणि में आचार्य हरिभद्रसूरि का योगदान भी उल्लेखनीय है। उन्होंने अनेकान्त की स्थापना करने के लिए अनेकान्तजयपताका नामक ग्रंथ की रचना की है । कुछ अन्य ग्रंथों में भी अनेकान्तवाद का स्थापन किया गया है । और अन्य दर्शनों के एकान्तवाद की मर्यादाओं का कथन करके उसका सयुक्तिक खंडन किया है । अंत में अनेकान्तवाद का सयुक्तिक स्थापन भी किया है। आचार्य हरिभद्रसूरि के अन्य महत्त्वपूर्ण, दार्शनिक ग्रंथ शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तवादप्रवेश, लोकतत्त्वनिर्णय, षट्दर्शनसमुच्चय आदि हैं । दार्शनिक ग्रंथों में तो दर्शन के तत्त्वों की चर्चा उपलब्ध हो वह स्वाभाविक ही है किन्तु धार्मिक सिद्धान्तों के विषयों की चर्चा के अवसर पर भी दार्शनिक चर्चा यह आचार्य हरिभद्रसूरि की विशेषता है। उन्होंने अष्टक नामक ग्रंथ में भी अनेकान्तवाद की चर्चा की है। वस्तुतया अष्टक ग्रंथ के अन्तर्गत प्रस्तुत अनेकान्त की चर्चा को ही निबन्ध का विषय बनाया है। अष्टक प्रकरण : आचार्य हरिभद्रसूरि ने जिस प्रकार दर्शन के मूर्धन्य ग्रंथों की रचना की है उसी प्रकार जैन सिद्धान्तों की चर्चा करने वाले उच्च कोटि के ग्रंथों की रचना की है। जिसमें पंचाशक, षोडशक, अष्टक आदि प्रमुख हैं । अष्टक लघुकाय प्रकरण ग्रंथ है। उसमें उन्होंने संस्कृत भाषा में ३२ विषयों के ऊपर सरल एवं सुबोध शैली में आठ आठ कारिकाओं की रचना की है। इन अष्टकों में आचारशास्त्र की एवं धर्मशास्त्र की समस्या जैसे महादेव का स्वरूप, स्नान, पूजा, हवन, भिक्षा, भोजन, ज्ञान, वैराग्य, तप, मांसभक्षण, मैथुन, पुण्य, तीर्थंकर, मोक्ष आदि तत्त्वों पर सूक्ष्म एवं गहन चिन्तन अपनी विशिष्ट शैली के आधार पर किया गया है। के० के० दीक्षित के अनुसार प्राचीन तथा मध्यकालीन भारत में उन उन आचारशास्त्रीय मान्यताओं का प्रतिपादन तथा प्रचार उन उन धर्मशास्त्रीय परंपराओं के माध्यम से हुआ करता था । अतः हरिभद्रसूरि ने भी उन्हीं को अपने ग्रंथ का विषय बनाया है। उन सभी विषय का संबंध मुख्य अथवा गौण रूप से मोक्ष के साथ स्थापित किया गया है । मोक्षप्राप्ति ही भारतीय दर्शनों का मुख्य लक्ष्य रहा है। यहाँ भी हरिभद्र ने सभी अष्टकों के विषयों का अन्तिम सम्बन्ध मोक्षसाधन के साथ ही जोड़ा है । तथापि इन ३२ अष्टकों में १४-१५-१६ नंबर के तीन अष्टक अपवाद स्वरूप है । जिन का सम्बन्ध मोक्षसाधन से कम और दर्शनशास्त्र से अधिक है। ये तीन अष्टकों के नाम अनुक्रम से एकांगी नित्यत्ववाद-खंडन अष्टक, एकान्त अनित्यत्ववाद खंडन अष्टक एवं नित्यानित्यत्ववाद समर्थन अष्टक है। प्रस्तुत अष्टकों के नाम से ही उनके विषय सुस्पष्ट है । भारतीय दार्शनिक परंपरा में वस्तु के स्वरूप के विषय में प्राचीन काल से ही चर्चा रही है कि वह नित्य है या अनित्य ? एकान्तवादी दर्शन पदार्थ को नित्य अथवा अनित्य मानते है किन्तु जैन दर्शन वस्तु को उभयात्मक Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396