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मृगेन्द्रनाथ झा
Nirgrantha
साधारण जिनस्तवनम्
(मन्द्राकान्ता) शान्तो वेषः शमसुखफलाः श्रोतृगम्या गिरस्ते कान्तं रूपं व्यसनिषु दया साधुषु प्रेम शुभ्रम् । इत्थम्भूते हितकृतपतेस्त्वय्यसङ्गा विबोधे
प्रेमस्थाने किमिति कपणा द्वेषमुत्पादयन्ति ॥१॥ हे कल्याणकारी जिन ! आपका वेष सौम्य है; आपकी वाणी अनायास बोधगम्या एवं मोक्षरूप फल देने वाली है; आप दुःखीजनों पर दया एवं साधुओं पर प्रेम करते हैं; आपका रूप मनोहर है; इतना होने पर भी मिथ्याज्ञानी कृपण लोग आपसे प्रेम करने के बजाय द्वेष क्यों करते हैं ? ॥१॥
(हरिणी) अतिशयवती सर्वा चेष्टा वचो हृदयङ्गमं शमसुखफलः प्राप्तौ धर्मः स्फुटः शुभसंश्रयः । मनसि करुणा स्फीता रूपं परं नयनामृतम्
किमिति सुमते ! त्वय्यन्यः स्यात्प्रसादकरं सताम् ॥२॥ आपकी सभी चेष्टाएँ अतिशययुक्त हैं । आपकी वाणी हृदय को स्पर्श करने वाली है, पवित्र आश्रय पाने से धर्म स्फुटित होकर कल्याणरूप फल प्राप्त किया । आपका मन दया से भरा है, नयन को अमृत समान सुख देने वाला रूप है; हे सुमति ! आपके सिवा सज्जनों पर दया करने वाला कौन है ?
(वंशस्थ) निरस्तदोषेऽपि तरीव वत्सले
कृपात्मनि त्रातरि सौम्यदर्शने । हितोन्मुखे त्वय्यपि ये पराङ्मुखाः
पराङ्मुखास्ते ननु सर्वसम्पदाम् ॥३॥ आप दयालु, जिस तरह गाय सदैव अपने बछड़े पर स्नेह रखती है, उसी तरह आप सब की रक्षा करनेवाले तथा भवसागर को पार करने के लिए नाव के समान हैं; सभी दोषों को दूर करने पर भी अगर कोई आपसे विमुख होता है तो वह सभी सम्पदाओं से विमुख हो जाता है ॥३॥
सर्वसत्त्वहितकारिणि नाथे न प्रसीदति मनस्त्वयि यस्य ।
मानुषाकृतितिरस्कृतमूर्तेरन्तरं किमिह तस्य पशोर्वा ? ॥४॥ हे नाथ ! आप सभी जीवों का कल्याण करनेवाले हैं; आप में जिसका मन नहीं लगता है उस तिरस्कृत मनुष्य तथा पशु में क्या अन्तर है ? ॥४॥
त्वयि कारुणिके न यस्य भक्तिर्जगदभ्यद्धरणोद्यतस्वभावे ।
नहि तेन समोऽधमः पृथिव्यामथवा नाथ ! न भाजनं गुणानाम् ॥५॥ हे नाथ ! आप जगत् के जीवों के उद्धार के लिए उद्यत रहते हैं। फिर भी अगर आप जैसे दयालु में जिसकी भक्ति नहीं हो तो उसके समान पृथ्वी पर कोई दूसरा अधम नहीं है (या वह गुण का पात्र
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