Book Title: Nirgrantha-3
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

Previous | Next

Page 313
________________ २६८ अशोक कुमार सिंह Nirgrantha जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग १ का विवरण भी संभवतः इसी स्रोत पर आधारित है । इसलिए १५४ गाथाओं का उल्लेख सही अर्थों में १४४ गाथाओं का ही माना जाना चाहिए । कापडिया का उत्तरवर्ती (Canonical Literature) विवरण निश्चित रूप से अपने पूर्ववर्ती विवरण पर ही आधारित होगा। परन्तु मुद्रण दोष ने विवरण को पूरी तरह असङ्गत बना दिया है। उनके विवरण से प्रथम दृष्टि में इस नियुक्ति में १२ अध्ययन होने का भ्रम हो जाता है - ९, ११, ३, १०, ७, ४, ११, ८, ६, ७, ८ और १५ । साथ ही इन गाथाओं का योग भी ९९ ही होता है जबकि ध्यान से देखने पर पता चल जाता है कि यह विसङ्गति निश्चित रूप से मुद्रण-दोष से उत्पन्न हुई है। इसमें शुरु का ९ और नौवें, दसवें क्रम पर उल्लेखित ६, ७ के मध्य का विराम, अनपेक्षित है । इस ९ को गणना से अलग कर देने और ६, ७ के स्थान पर ६७ पाठ हो जाने पर अध्ययन संख्या १० और गाथा संख्या १४४ हो जाती है और कापडिया के उक्त दोनों विवरण एक समान हो जाते है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस नियुक्ति की गाथासंख्या १४४ और १४१ उल्लिखित है। यह संख्या-भेद पाँचवें अध्ययन में क्रमश: चार (१४४) और एक (१४१) गाथा प्राप्त होने के कारण है। ... द. नि. की गाथा सं. निर्धारित करने के क्रम में नि. भा. चू. का विवरण भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत नियुक्ति के आठवें 'पर्युषणाकल्प' अध्ययन की सभी गाथायें नि. भा. के दसवें उद्देशक' में उसी क्रम से 'इमा णिज्जुत्ती' कहकर उद्धृत हैं । नियुक्ति के आठवें अध्ययन में ६७ गाथायें और नि. भा. के दसवें उद्देशक के सम्बद्ध अंश में ७२ गाथायें हैं। इस प्रकार नियुक्ति गाथाओं के रूप में उद्धृत पाँच गाथायें अतिरिक्त हैं । नि. भा. में इनका क्रमाङ्क ३१५५, ३१७०, ३१७५, ३१९२ और ३२०९ है। इन अतिरिक्त गाथाओं का क्रम द. नि. में गाथा सं. क्रमशः ६८, ८२, ८६, १०१ एवं १०९ के बाद आता है। नि. भा. में उल्लिखित अतिरिक्त गाथायें निम्न हैं - पण्णासा पाडिज्जति, चउण्ह मासाण मज्झओ । ततो उ सत्तरी होइ, जहण्णो वासुवग्गहो ॥३१५५॥ विगतीए गहणम्मि वि, गरहितविगतिग्गहो व कज्जम्मि । गरहा लाभपमाणे, पच्चयपावप्पडीघातो ॥३१७०॥ डगलच्छारे लेवे, छडुण गहणे तहेव धरणे य । पुंछण-गिलाण-मत्तग, भायण भंगाति हेतू से ॥३१७५॥ चउसु कतासेसु गती, नरय तिरिय माणुसे य देवगती । उवसमह णिच्चकालं, सोग्गइमग्गं वियाणंता ॥३१९२॥ असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । अद्धाण रोहए वा, दोसु वि सुत्तेसु अप्पबहुं ॥३२०९॥ इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि द. चू. (भावनगर) में ऊपर उल्लिखित गाथा सं. ६८ एवं ८६ की चूर्णि के रूप में प्राप्त विवरण में नि. भा. चू. के समान ही गाथा संख्या ३१५५ और ३१७५ की चूर्णि भी प्राप्त होती हैं । गाथा सं. ८२ के अंश नि. भा. की ३१६९ और ३१७० दोनों गाथाओं में प्राप्त होते हैं । ८२ की चूणि भी नि. भा. चू. की इन दोनों गाथाओं की समन्वित चूर्णियों के समान है। जबकि गाथा सं. १०१ की चूर्णि के साथ नि. भा. ३१९२ की चूर्णि और ११८ की चूर्णि के साथ ३२०९ की चूर्णि द. चू. में प्राप्त नहीं होती है । तथ्य को स्पष्ट करने के लिए दोनों चूर्णियों के सम्बद्ध अंश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

Loading...

Page Navigation
1 ... 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396