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श्रीप्रकाश पाण्डेय
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प्रत्यक्ष प्रमाण विवेचन जो तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में हुआ है, वह अपने आप में पूर्ण है इसमें कोई संदेह नहीं है ।
संदर्भसूची
१. सर्वार्थसिद्धि संपा. पं. फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली १९९९, "प्रस्तावना" पू. ६२.
२. षट्खण्डागम (धवला टीका एवं हिन्दी अनुवाद सहित ) पुष्पदन्त भूतबलि, जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, प्रथम आवृत्ति, अमरावती
१९५९.
Vol. III 1997-2002
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३. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, संपा० श्री विद्यानन्द मनोहरलाल शा, रामचन्द्र नथरंगजी गांधी, मांडवी, बम्बई १९१८, पृ० ६.
४. पं० जुगलकिशोर मुख्तार, जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, वीरसेवा मन्दिर सरसावा, सहारनपुर १९५६, पृ० २०२.
५. सागरमल जैन, तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा, पार्श्वनाथ शोध-पीठ, वाराणसी १९९४, पृ० ४.
६. प्रमाणपरीक्षा, संपा० दरबारीलाल कोठिया, वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी १९७७, पृ० ९.
(अ) प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम् ।
पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, १/१०, पृ० ७०.
(ब) प्रमीयन्तेऽर्थास्तैरिति प्रमाणानि ।
उमास्वाति, सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, श्रीमद राजचन्द्र आश्रम, अगास १९३२, १/१२.
७. न्यायभाष्य, संपा० आचार्य ढुंढिराज शास्त्री, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी वि० सं० २०३९, पृ० १८.
८. न्यायमञ्जरी, जयन्त भट्ट, संपा० के० एस० वरदाचार्य, Oriental Research Institute, Mysore, 1969, p. 12.
९. न्यायबिन्दु, चौखम्भा सिरीज काशी पृ० १३.
१०. अथ संनिकर्षे प्रमाणे सति इन्द्रिये वा को दोषः । यदि संनिकर्ष प्रमाणम्, सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टानामर्थानाम् अग्रहणप्रसंगः। सर्वार्थसिद्धि
१/१० पृ० ६९.
१९. वही - १ / १९.
१२. जैनन्याय, संपा० प० कैलाशचन्द्र शास्त्री, श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी १९८८, पृ० २७.
१३. न्यायकुमुदचन्द्र : प्रभाचन्द्राचार्य, संपा० प० महेन्द्रकुमार न्यायशास्त्री, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई वी० नि० स० २४६४ / ईस्वी १९३७, पृ० ५०.
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१४. वही, पृ० ३३.
१५. जैनन्याय ५. ७२.
१६. मतिश्रुत अवधिमन पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र १/१ १०.
१७. (अ) समन्तभद्र, बृहत्स्वयंभूस्तोत्र. संपा० प० जुगलकिशोर मुख्तार, वीरसेवा मन्दिर सरसावा, सहारनपुर १९५१, का० ६३.
(ब) तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।
क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्वाद्वाधसंस्कृतम् । आप्तमीमांसा, समन्तभद्र, श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, नरिया, वाराणसी १९७५, गा० १०१.
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१८. (I) Since the Nyāyāvatāra (wrongly ascribed to Siddhasena) incorporates verses from the Buddhist dialections Dingnaga (c. A. D. 480-560 or earlier), Samantabhadra (c. A. D. 575-625), Yogindra (c. 7th Century) and Pātrakesari (c. A. D. 700), all Digambar Saints, it was rightly thought to be a late work by Digambar scholars. What Siddhasena wrote was, Dvädaśäranayacakra of Mallavādi according to the commentary by Simha-Sura Kṣamāśramaņa (c. A. D. 675) on (c. A. D. 525-575) a work entitled 'Nayavatāra' not 'Nyāyāvatara', the latter in all probability being the work by Siddharsi (late 9th early 10th century) not Siddhasena. Cf. M. A. Dhaky. The Jina Image and Nirgrantha agamic and hymnic imagery' A paper presented in Seminar on 'The Sastric Tradition in
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