Book Title: Nirgrantha-3
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 309
________________ २६४ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र.... Nirgrantha Indian Art' footnote p. 102, Heidelberg 1985; also his The Date and Authorship of Nyāyāvatāra' in Nirgrantha. Vol. 1, 1995, p. 45. १९. न्यायावतार, संपा. सतीशचंद्र विद्याभूषण एवं डॉ. सत्यरंजन बनर्जी, संस्कृत बुक डिपाट, कलकत्ता १९८१, का. १. २०. "प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् ।" अष्टसहस्री, विद्यानन्द (अनु. आर्यिका श्री ज्ञानमती), दिगम्बर जैन त्रिलोक संस्थान, हस्तिनापुर-मेरठ १९७४, पृ. १७५. २१. गृहीतमगृहीतं वा यदि स्वार्थ व्यवस्यति । तन्नलोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ।।७९ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, संपा. आचार्य कुन्थूसागर, कुन्थूसागर ग्रन्थमाला, सोलापुर वीर सं० २४९५ / ईस्वी १९६८, तृतीय खण्ड, पृ. ९८. २२. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । परीक्षामुख : माणिक्यनन्दि, संपा. पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, प्रकाशक : श्री बालचन्द जैन शास्त्री, बनारस १९२८. १/१. २३. दुविहे नाणे पण्णते - तं जहा-पच्चक्खे चेव परोक्खे चेव । __ स्थानांग, संपा. मुनि जम्बूविजय, श्री महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई १९८५, बीयं अज्झयणं, पढमो उद्देशो-६०, ग्रन्थांक ३. २४. से किं तं पमाणे ? पमाणे चउविहे पण्णत्ति तं जहा पच्चक्खे जहा अणुओग दारे तहा यव्वं । वियाहपण्णत्ति, महावीर जैनविद्यालय, मुम्बई १९७८, ५/३/२ पृ० १११, ग्रन्थांक ४. २५. (अ) अहवा हेउ चउविहे पं. तं पच्चक्खे अणुमाणे, ओवम्मे आगमे । - स्थानांग - ४१३/३३६ प. १४९. (ब) पमाणे चउब्विहं पण्णत्ति-वियाह-पण्णत्ति-५/३/२ पृ. १११. २६. दशवकालिकनियुक्ति महावीर जैनविद्यालय, बम्बई १९७७, गाथा-५०. २७. अनुयोगद्वार, नन्दीसूत्र अनुयोगदाराई, संपा. पं० बेचरदास दोशी, महावीर जैनविद्यालय, बम्बई १९७८, सू. ५९. २८. तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वाति, संपा. पं. सुखलालजी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९७६, १/१०-१२. २९. न्यायसूत्र, संपा. श्रीमद् जीवानन्द विद्यासागर एवं श्रीनित्यबोध विद्यारत्न, चौखम्भा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली १९८६, १/१/३. ३०. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र- १/६ ३१. (अ) वैशेषिकसूत्र, संपा. आचार्य ढुंढीराज शास्त्री, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी १९७७, ९/२/३. (ब) सांख्यकारिका, ईश्वरकृष्ण, संपा. रमाशंकर त्रिपाठी, भदैनी, वाराणसी १९७८, का० ४. (स) न्यायसूत्र, १/१/३. (द) प्रकरणपंचिका : शालिकनाथ, चौखम्भा संस्कृत सिरीज, वाराणसी, पृ० ४४. (य) शास्त्रदीपिका, संपा. पार्थसारथि मिश्र, निर्णयसागर, प्रथम संस्करण, मुंबई १९१५, पृ. २४६. ३२. सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्तर्भूतानीन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमित्तत्वात् । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र-१/१२. ३३. वही १/११. ३४. न्यायदर्शनम् (वात्स्यायन भाष्य), संपा. आचार्य ढुंढीराज शास्त्री, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी वि० सं० २०३९, १/१/३. ३५. इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञान....प्रत्यक्षम् । - न्यायदर्शनम् १/१/४. ३६. (अ) सर्वार्थसिद्धि-१/१२. (ब) 'जीवो अक्खो अत्थव्वावणमोयण गुणण्णिओ जेण' विशेषावश्यकभाष्य, संपा. पं. दलसुख मालवणिया एवं पं० बेचरदास दोसी, ला. द. भा. स. वि. मंदिर, अहमदाबाद १९६८, पृ. ८९. (स) तथा च भगवान भद्रबाहु जीवो अखो तं पई जं वट्टइ तं तु होइपच्चक्खं - न्यायावतार टि. प. ९५. (द) 'अक्ष्णोति व्याप्नोति जानाति' इति अक्ष आत्मा । Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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