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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र....
Nirgrantha
शब्द का अर्थ इन्द्रिय और वृत्ति का अर्थ है सन्निकर्ष अर्थात् इन्द्रिय का अर्थ के साथ सम्बन्ध होने पर उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष है, ऐसा न्यायदर्शन का मत है ।
जैन परम्परा ६ 'अक्ष' शब्द का अर्थ जीव या आत्मा करती है और तदनुसार इन्द्रिय निरपेक्ष और केवल आत्मपरोक्ष ज्ञान को ही प्रत्यक्ष मानती है और इन्द्रियाश्रित ज्ञान को परोक्ष । कहीं-कहीं 'अक्ष' शब्द का इन्द्रिय अर्थ लेकर भी व्युत्पत्ति का आश्रय लिया गया है पर वह दर्शनान्तर प्रसिद्ध परम्परा तथा लोकव्यवहार के संग्रह की दृष्टि से । पूज्यपाद 'अक्ष' शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि- “अक्ष्णोति व्याप्नोति जानतीत्यक्ष आत्मा"३७ । 'अक्ष', 'व्याप' और 'ज्ञा' ये धातुएँ एकार्थक हैं, इसलिए अक्ष का अर्थ आत्मा होता है और "तमेवप्राप्तवृक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा प्रतिनियतं वा प्रत्यक्षं"३८ अर्थात् क्षयोपशमवाले या आवरण रहित केवल आत्मा के प्रति जो नियत है या जो ज्ञान बाह्य इन्द्रियादि की अपेक्षा न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरणरहित आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है 'अक्षं प्रतिनियतिमिति परापेक्षा निवृत्तिः' अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान में पर की अपेक्षा नहीं होती।
___ आचार्य उमास्वाति ने इसी आधार पर आत्मसापेक्ष और इन्द्रियादि की अपेक्षा के बिना होनेवाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है । तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में उन्होंने इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहा है और मतिज्ञान और क्षुतज्ञान को छोड़कर अवधि, मनःपर्यय और केवल को प्रत्यक्ष कहा है९ । बाद के सभी जैनाचार्यों ने उमास्वाति की इसी परिभाषा को आधार बनाकर प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण का विवेचन किया है । न्यायावतारकर्ता ने अपरोक्ष रूप से ग्रहण किये जाने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है
अपरोक्षतयाऽर्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् ।
प्रत्यक्षमितिरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया ।। परोक्ष क्या है, 'असाक्षादर्थ ग्राहकं ज्ञानं परोक्षमिति'४१ अर्थात् असाक्षात् अर्थ का ग्राहक परोक्ष है एवं जो अपरोक्ष अर्थात् साक्षात् अर्थ का ग्राहक है वह प्रत्यक्ष है ।
___भट्ट अकलंक के अनुसार “इन्द्रिय और मन की अपेक्षा के बिना जो व्यभिचार रहित साकार ग्रहण होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं इन्द्रियानिन्द्रियापेक्षमतीतव्यभिचारं साकार ग्रहणं प्रत्यक्ष ।" न्यायविनिश्चय में उन्होंने 'प्रत्यक्षलक्षणं' प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा कहकर प्रत्यक्ष को परिभाषित किया है अर्थात् जो ज्ञान स्पष्ट है, वही प्रत्यक्ष है । इस परिभाषा में उपरोक्त परिभाषा में आये 'साकार' पद के साथ एक 'अञ्जसा' पद भी आया है । साकार का अर्थ है सविकल्पकज्ञान क्योंकि निर्विकल्पकज्ञान को जैन दर्शन में प्रमाण नहीं माना गया है । 'अञ्जसा' पद पारमार्थिक दृष्टि का सूचक है । प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए यह आवश्यक है कि वह परमार्थ में भी विशद हो । वैशद्य का लक्षण करते हुए लघीयस्त्रय में उन्होंने कहा है कि
अनुमानाद्व्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् ।
तद्वैशद्यं मतं बुद्धेरवैशद्यमतः परम्" ।। अर्थात् अनुमानादि से अधिक नियत देश, काल और आकार रूप से प्रचुरतर विशेषों के प्रतिभासन को वैशद्य कहते हैं । दूसरे शब्दों में जिस ज्ञान में किसी अन्य ज्ञान की सहायता अपेक्षित न हो वह ज्ञान विशद कहलाता है । अनुमान में लिंगादि की आवश्यकता पड़ती है परंतु प्रत्यक्ष में किसी अन्यज्ञान की आवश्यकता नहीं होती ।
अवधेय है कि बौद्ध दार्शनिक भी विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं परंतु वे केवल निर्विकल्पक ज्ञान को ही प्रत्यक्ष की सीमा में रखते हैं । प्रत्यक्ष की उनकी परिभाषा है-'कल्पनापोढम् भ्रान्तं प्रत्यक्षम्' अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान को कल्पना स्वभाव, और किसी भी प्रकार के विपर्यय या भ्रांति से रहित होना चाहिए । जैन दार्शनिक परम्परा
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