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२६० सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र....
Nirgrantha एक प्रकार का है । आवश्यकनियुक्ति में अवधिज्ञान को क्षेत्र, संस्थान, अवस्थित, तीव्र, मंद इत्यादि चौदह दृष्टिकोणों से विवेचित किया गया है । विशेषावश्यकभाष्य में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं भव इन सात निक्षेपों के माध्यम से अवधिज्ञान को विश्लेषित किया गया है । [२] मनःपर्ययज्ञान :
जीव के द्वारा गृहीत और मन के आकार में परिणीत द्रव्यविशेषरूप मनोवर्गणाओं के आलम्बन से विचाररूप पर्यायों को बिना इन्द्रियादि साधनों के साक्षात् जान लेना मनःपर्यय ज्ञान है । सम्पूर्ण प्रमादों से रहित और जिसे मनःपर्यय ज्ञानावरण का क्षयोपशम प्राप्त हो चुका है उसे ही यह अत्यंत विशिष्ट क्षायोपशमिक किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है । जिससे वह मनुष्य लोकवर्ती मनःपर्याप्ति" धारण करनेवाले पंचेन्द्रिय प्राणिमात्र के त्रिकालवर्ती मनोगत विचारों को बिना इन्द्रिय और मन की सहायता के ही जान सकता है । आवश्यकनियुक्ति के अनुसार मनःपर्यय ज्ञान का अधिकारी केवल मनुष्य ही होता है और मनुष्यों में भी, वह जो चारित्रवान होता है । नन्दीसूत्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से मनःपर्ययज्ञान का विवेचन करते हुए कहा गया है कि 'द्रव्यादि की दृष्टि से मनःपर्ययज्ञान के अन्तर्गत वे पुद्गल द्रव्य जो मन के रूप में परिवर्तित होते हैं, वे आते हैं, क्षेत्र की दृष्टि से यह मनुष्य क्षेत्र में पाया जाता है, काल की दृष्टि से यह असंख्यात काल तक स्थित रहता है और भाव की दृष्टि से इनमें मनोवर्गणाओं की अनन्त अवस्थाएँ देखी जा सकती हैं । संयम की विशुद्धता मनःपर्ययज्ञान का बहिरंग कारण है और मनःपर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम अंतरंग कारण है । इन दोनों कारणों के मिलने पर उत्पन्न होने वाला ज्ञान इन्द्रिय-अनीन्द्रिय की सहायता के बिना मनुष्य के मनोगत विचारों को जान लेता है।
विषयभेद की अपेक्षा से इस ज्ञान के दो भेद हैं : (१) ऋजुमति (२) विपुलमति
ऋजुमति, जीव के द्वारा ग्रहण में आयी हुई और मन के आकार में परिणत द्रव्य विशेष रूप मनोवर्गणाओं के अवलंबन से विचार रूप पर्यायों को इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की अपेक्षा के बिना ही जानता है । ऋजुमति, ऋजुसामान्य-दो-तीन एवं केवल वर्तमान पर्यायों को ही ग्रहण करता है । जबकि विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान त्रिकालवर्ती, मनुष्य के द्वारा चिंतित, अचिंतित एवं अर्द्धचिंतित ऐसे तीनों प्रकार की पर्यायों को जान सकता है । ये दोनों ही प्रकार के ज्ञान दर्शनपूर्वक नहीं हुआ करते जबकि अवधिज्ञान प्रत्यक्ष होकर भी दर्शनपूर्वक होता है ।
मनःपर्यय ज्ञान के इन दोनों भेदों में उमास्वाति ने दो विशेषताएँ और बताई है - (१) विशुद्धकृत (२) अप्रतिपातकृत ।
ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान की अपेक्षा विपुलमति-मनःपर्ययज्ञान अधिक विशुद्ध हुआ करता है तथा विपुलमति अप्रतिपाती है । क्योंकि ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होकर छूट भी जाता है, और एक ही बार नहीं अनेक बार उत्पन्न होकर छूट जाता है परंतु विपुलमति अप्रतिपाती होने से उत्पन्न होने के बाद भी जबतक केवलज्ञान प्रकट न हो तबतक नहीं छूटता ।
मनःपर्ययज्ञान की ग्रहणशक्ति के सम्बन्ध में दो परम्पराएँ देखी जाती हैं
(१) सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि ग्रन्थों में यह कहा गया है कि आत्मा के द्वारा मनःपर्ययज्ञान में मन के चिंतित अर्थ का साक्षात्कार होता है ।
(२) विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार मनःपर्ययज्ञान में आत्मा के द्वारा मन की पर्यायों का साक्षात्कार होता है फिर उसके आधार पर चिंतित अर्थ के सम्बन्ध में अनुमान किया जाता है ।
अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में अन्तर :- उमास्वाति ने इन दोनों ज्ञानों में विशुद्धिकृत, क्षेत्रकृत,
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