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नेमिदूतम्
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सा ताम्, स्वर्णरेखां-हैमपंक्ति प्राप्तः । वामनस्य तामनुपमा पुरं हरेः वामनावतारस्य विष्णोरित्यर्थः, गरिष्ठां नगरम्, द्रष्टा उज्जयिनी द्रक्ष्यसि । भोगोपचयं भुक्त्वा या नगरी उज्जयिनी भोगप्रौढिमाणं, समस्तान् भोगान् वस्तुनि उपभुज्य इत्यर्थः । अवनिमागतानां पृथ्वीं प्राप्तानाम्, नाकिनां देवलोकनिवासिनाम् । शेषैः पुण्यह तम् अवशिष्टः धर्मः, सुकृतैरिति भावः, अवतारितम् । कान्तिमत् एकं दिवः खण्डमिव उज्ज्वलम् अन्यतमं स्वर्गलोकस्य शकलमिव प्रतीयते ॥ ३२ ॥
शब्दार्थः - तस्याधस्ताद्-उस केलिपर्वत के नीचे से ( जाते हुए ), मार्गे-मार्ग में, भवान्--तुम ( नेमि ), विषमपुलिनाम्-निम्नोन्नत तटवाली, स्वर्णरेखामतीत:--स्वर्ण रेखा की कान्ति को प्राप्त हुई, वामनस्य-- वामनावतार भगवान् विष्णु के, तां अनुपमां पुरम् --उस अनुपम नगर को, द्रष्टा-देखोगे, जो, भोगोपचयम्-सभी प्रकार के भोगों को, भुक्त्वाभोग करके, अवनिम्--पृथ्वी पर, आगतानाम् -आए हुए, नाकिनामस्वर्गलोक में रहने वालों के, शेषः पुण्यै:--अवशिष्ट पुण्यों के द्वारा, हृतम्-- लाया गया, कान्तिमत्- उज्ज्वल, एकम्--एक, दिवः -स्वर्ग के, खण्डमिव-टुकड़े की तरह ( है)।
अर्थः - ( हे नाथ ! ); उस क्रीडाशैल के नीचे से जाते हुए मार्ग में तुम निम्नोन्नत तट वाले स्वर्ण-पंक्ति को प्राप्त हुए भगवान् वामन की उस सुन्दर नगरी को देखोगे जो नगरी ( उज्जयिनी ) सभी प्रकार के भोगों का भोग करके पृथ्वी पर आये हुए स्वर्गवासियों के बचे हुए पुण्यफलों के द्वारा लाए गए स्वर्ग के एक उज्ज्वल टुकड़े की तरह अर्थात्, सम्पत्ति से परिपूर्ण है । 'यस्यां सान्द्रानुपवनलतावेश्मसु स्वेदबिन्दून्,
मुष्णन्नंगात्सुरतजनितानुज्जयन्तीं विगाह्य । कुर्वन्तोरे विगलितपटाः सेवते वारनारी,
शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः ।। ३३ ॥
१. यस्यां सान्द्रोनुपमचलितो वेश्मसु स्वेच्छयैवं,
उष्णन्नंगात्सुरतललितादुज्जयन्तीं विगाह्य । स्वेदे तीरे विदलितपुटः सेवते वारिनारी,
शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थना चाटुकारः ॥ इति पाठान्तरमुपलभ्यते
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