Book Title: Nemidutam
Author(s): Vikram Kavi
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 162
________________ नेमिदूतम् [ ११३ अर्थः माता शिवा के द्वारा गोद में बैठाकर प्रियवचनों से पूर्वोक्त प्रकार से सान्त्वना दिये जाने पर भी राजीमती ने एक क्षण के लिए भी विरहजन्य दीनता को नहीं छोड़ा । हे संग्राम में धीर ! अब, जैसे यह राजीमती उस विरहजन्य - दीनता को छोड़े उस प्रकार से इस ( राजीमती ) से सत्य, गम्भीर वचनों से वक्तव्य प्रारम्भ करो । टिप्पणी: उक्त स्थल में 'धीरः' पद की योजना का अभिप्राय है कि नेमिनाथ राजीमती को भली-भाँति समझावे, क्योंकि स्त्रियाँ स्वभावतः घबशलू होती हैं, तब जो स्वयं 'धीर' नहीं होगा, वह दूसरे को धैर्य बँधायेगा, यह सम्भव ही नहीं । - मातुः शिक्षाशतमलमवज्ञाय दुःखं सखीनामन्तश्चि तेष्वजनयदियं पाणिपंकेरुहाणि । हस्ताभ्यां प्राक् सपदि रुदती रुन्धती कोमलाभ्यां, मन्द्रस्निग्धैर्ध्वनिभिरबलावेणिमोक्षोत्सुकानि ॥ १०६ ॥ अन्वयः , इयम्, मातु:, शिक्षाशतमलमवज्ञाय, पाणिपंकेरुहाणि कोमलाभ्याम्, हस्ताभ्याम्, अबलावेणिमोक्षोत्सुकानि प्राक्, रुन्धती, सपदि, मन्द्रस्निग्धः, ध्वनिभिः, रुदती सखीनामन्तश्चित्तेषु, दुःखम्, अजनयत् । 1 मातु इति । इयं मातुः शिक्षाशतमलमवज्ञाय हे राजन् ! राजीमती शिवायाः उपदेशशतं व्यर्थं मत्वा । पाणिपकेरुहाणि कोमलाभ्यां कमलानि यथा मृदुभ्याम्, हस्ताभ्यां कराभ्यां वा । अबलावेणिमोक्षोत्सुकानि वियोगिनीबद्धवेणिमोचनोत्कंठितानि [ अबलानां वेणयः - अबलावेणयः ( ष० तत् ० ) तासां मोक्ष :अबलावेणिमोक्ष : ( ष० तत्० ) तस्मिन् उत्सुकानि - - अबलावेणिमोक्षोत्सुकानि ( स० तत् ० ) ] । प्राक्रुन्धती पूर्वं वारयन्ती । सपदि मन्द्रस्निग्धैः, शीघ्र गम्भीरमधुरैः [ मन्द्राश्च ते स्निग्धाः मन्द्रस्निग्धा: ( कर्मधा० ) तैः ] | ध्वनिभिः रुदती स्तनितः विलपन्ती । सखीनामन्तश्चित्तेषु दुःखम् आलीनामन्तःकरणेषु कष्टम्, अजनयत् उत्पादयत् ॥ १०६ ॥ शब्दार्थः - इयम् - - यह राजीमती, मातुः -- माता के, शिक्षाशतमलमवज्ञाय -- सभी उपदेशों को व्यर्थ मानकर, पाणिपङ्केरुहाणि - कमल की तरह, कोमलाभ्याम् - कोमल, हस्ताभ्याम् — हाथों द्वारा, से, अबलावेणिमोक्षोत्सुकानि - - ( विरहिणी ) स्त्रियों की चोटी को खोलने के लिए उत्कंठित, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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