Book Title: Nemidutam
Author(s): Vikram Kavi
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 99
________________ ५० ] स्यन्दानारूढो व्रजेः । यः कामीव सरित्कामिनीनां यः समुद्रः कामुकयथा सरित एव - नद्य एव कामिन्यः सरित्कामिनीनाम् । चटुलशफरोद्वर्तन प्रेक्षितानि मोघीकर्तुं चञ्चलमत्स्योल्लुण्ठनानि [ चटुलानि च तानि शफरोद्वर्तनानि चटुलशफरोद्वर्तनानि ( कर्मधारय ) तान्येव प्रेक्षितानि चटुल- शफरोद्वर्तनप्रेक्षितानि ( रूपक० ) ] 'विफलीकर्तुम् ( मोघीकर्तुम् - मोघ + च्वि, ईत्व, V कृ + तुमुन् ) । क्षणमपि न शक्तः मुहूर्तमपि न समर्थोऽस्ति ॥ ४४ ॥ = शब्दार्थः ततः - इसके बाद, त्वत्संकाशच्छविजलनिधेः — तुम्हारी कान्तिसदृश समुद्र के, तोयमुल्लासिमत्स्यम् - जल में उल्लसित मछलियों को, पश्यन्—देखते हुए, तस्य – समुद्र के, वेलातटमनु - धारा प्रवाह से युक्त ट से, रथस्थः - रथारूढ़ हो, गच्छे: - जाना, यः -- जो समुद्र, कामीव - कामुक की तरह, सरित्कामिनीनाम् - नदी रूपी वनिताओं के, चटुलशफरोद्वर्तनप्रेक्षितानि - चञ्चल मछलियों के उच्छलन रूप चितवनों को, मोघीकर्तुम्—– निष्फल करने में, क्षणमपि - पलभर भी, न शक्तः - समर्थ नहीं ( है ) 1 नेमिदूतम् ― अर्थः इसके बाद, तुम्हारे कान्ति सदृश समुद्र के जल में उल्लसित मछलियों को देखते हुए, समुद्र के धारा- प्रवाहयुक्त तट से ( तुम ) रथारूढ़ होकर जाना, जो समुद्र कामुक की तरह नदी रूपी वनिताओं के चञ्चल मछलियों के उच्छलन रूप चितवनों को निष्फल करने में पलभर भी समर्थ नहीं है । ai वेलां विमलसलिलामागतां द्रक्ष्यसि त्वं, सरितमसकृद्वारिधिर्वोचिहस्तैः । पूर्वोद्दिष्टां यामालिंग्योपरमति पिबन्यन्मुखं न क्षणार्द्ध, अन्वया ज्ञातास्वादो विवृतजघनां' को विहातुं समर्थः ॥ ४५ ॥ त्वम्, पूर्वोद्दिष्टाम्, वेलांके, आगताम्, विमलसलिलाम् तां सरितम्, द्रक्ष्यसि याम्, वारिधिः, वीचिहस्तैः, आलिंग्य, यन्मुखम्, असकृद, पिबन्, क्षणार्द्धम्, न, उपरमति, ज्ञातास्वादः कः; विवृतजघनाम्, विहातुम् समर्थः । 1 तां वेलांकेति । त्वं पूर्वोद्दिष्टां हे नाथ ! त्वं नेमि इत्यर्थः पूर्वोक्ताम् । १. पुलिनजघनाम्, विपुलजघनामिति पाठान्तरम् । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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