Book Title: Nemidutam
Author(s): Vikram Kavi
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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नैमिदूतम्
एतदुःखापनयेति । एतदुःखापनय प्राक् सखीनां समाजे हे राजन् ! तवविरहजन्यदुःखदूरीकर्तुम् पुरा आलीनां समूहे वीणामादय वल्लकीं नित्वा कितव मधुरं गीतं धूर्तता मधुरं गीतं संगीतं वा, गायति ( सति ) आलापयति सति । त्वद्ध्यानेनापहृतहृदया भवतः स्मरणेन मुग्धचित्ता । भूयो भूयः स्वयं कृतामपि पुनः पुनरात्मना विहितामपि । मूर्च्छनां विस्मरन्ती स्वराऽऽरोहाऽवरोहक्रमं विस्मरणं कुर्वन्ती । गातुकामा गातुमभिलषन्ती एषा रसिके इयं विदग्धे बाला राजीमती इति भावः, ललज्जे ।। ९३ ॥
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शब्दार्थः एतदुःखापनय - तुम्हारे वियोगजन्य दुःख को छिपाने के लिए, प्राक् -- पहिले, सखीनाम् - सखियों के, समाजे समूह में, वीणाम् - वीणा को, आदाय — लेकर, कितव - छल से, मधुरम् - कर्णप्रिय गीतम् - गीतको गायति ( सति । — गाती हुई, त्वद्ध्यानेनापहृतहृदया - तुम्हारे स्मरण से अपहृत चित्त हो, भूयो भूयः - बार-बार, स्वयम् - खुद, कृतामपि - बनाई गई भी, मूर्च्छनाम् - स्वरों के उतार एवं चढ़ाव के क्रम को, विस्मरन्ती - भूलती हुई, गातुकामा — गाने की इच्छा वाली, एषा - यह, रसिके - रसीली ( राजीमती ), ललज्जे - लज्जित हो जाती ।
अर्थ: तुम्हारे वियोगजन्य दुःख को छिपाने के लिए सखियों के समूह में पहले वीणा को लेकर छल के बहाने मधुर गीत को गाती हुई तुम्हारे स्मरण से अपहृत चित्त होकर बार-बार खुद बनाई गई स्वरों के उतारचढ़ाव के क्रम को भूलती हुई गाने की इच्छा वाली यह रसीली ( राजीमती ) लज्जित हो जाती ।
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त्वत्प्राप्त्यर्थं विरचितवती तत्र सौभाग्यदेव्याः, पूजामेषा सुरभिकुसुमैरेकचित्ता मुहूर्तम् । दैवज्ञान् वा नयति निपुणान् स्म क्षणं भाषयन्ती, प्रायेणते रमण विरहेष्वंगनानां विनोदाः ॥ ६४ ॥
अन्वयः तत्र त्वत्प्राप्त्यर्थम् एषा, मुहूर्तम्, एकचित्ता ( सती ), सौभाग्यदेव्याः, सुरभिकुसुमैः, पूजाम्, विरचितवती, वा, निपुणान्, दैवज्ञान्, भाषयन्ती, क्षणम्, नयति स्म, प्रायेण, अङ्गनानाम्, रमण विरहेषु एते, विनोदा:, ( भवन्ति ) |
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