Book Title: Nemidutam
Author(s): Vikram Kavi
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 147
________________ ९८] नेमिदूतम् कुमुदमिव कुमुदवत्याः अविकस्वरं शुष्कं कुमुदं यथा । ते वियोगात् तव नेमे इति भावः, विरहात् । त्वदनुसरणक्लिष्टकान्तेः भवतरनुगमनक्षीणद्युतेः [ तव अनुसरणं-त्वदनुसरणम् (१० तत्० )। क्लिष्टा कान्तिर्यस्य स क्लिष्टकान्तिः ( बहुब्री० ) त्वदनुसरणेन क्लिष्टकान्ति:-त्वदनुसरणक्लिष्टकान्तिः ( तृ० तत्० ) तस्य ] । इन्दोर्दैन्यं बिभर्ति चन्द्रमसो दीनतां धारयति, पश्यावलोकय ।। ९१ ॥ ___ शब्दार्थः -- मृदुकरपरिष्वंगसौख्यानि-तुम्हारे कोमल हाथ के स्पर्श सुखों की, आकांक्षन्त्या-अभिलाषा करती हुई, अमुष्या:-इस, सख्या:राजीमतीका, अनुदितम्-शोभासे रहित, मुखम्-~मुख की, अधिः-कान्ति, शोभा, उद्यत्तापात् - उत्कट ताप ( ग्रीष्म ) के कारण, करविण्याः-श्वेत कुमुद वृक्षके, स्मेरम्-खिले हुए, म्लानम्-मलीन, कुमुदम्-कुमुदपुष्प की; इव-तरह, ते-तुम्हारे, वियोगात्-विरह में, त्वदनुसरण क्लिष्टकान्तेःतुम्हारा पीछा करनेसे फीकी कान्ति वाले, इन्दो:-चन्द्रमा की, दैन्यम्दीनदशा को, विति-धारण करती है, पश्य-देखो। अर्थः - तुम्हारे कोमलकरस्पर्श के सुखों की अभिलाषा करती हुई इस राजीमती का शोभा से रहित मुखकान्ति, उत्कट ताप के कारण श्वेत कुमुद वृक्ष के खिले हुए म्लान कुमुदपुष्पों की तरह, तुम्हारे वियोग में तुम्हारा पीछा करने से फीकी कान्तिवाले चाँद की दीनदशा को धारण करती है, देखो। शय्योत्संगे निशि पितृगृहे प्राप्य निद्रा पुरासौ, त्वं क्व ? स्वामिन् ! व्रजसि सहसेति ब्रुवाणा प्रबुद्धा। ऊचेऽस्माभिर्न खलु नयनेनापि येनेक्षितासीः, कच्चिद्भर्तुः स्मरसि रसिके ! त्वं हि तस्य प्रियेति ॥१२॥ अन्ववः - असो, पितृगृहे, निशि, शय्योत्संगे, निद्राम्, प्राप्य, पुरा, सहसा, प्रबुद्धा, इति, ब्र वाणा, स्वामिन् ! त्वम् क्व, व्रजसि ?, ( तदनु ), अस्माभिः, ऊचे, रसिके !, भर्तुः, स्मरसि, कच्चित् ? हि, त्वम्, तस्य, प्रिया, इति येन, नयनेनापि, न ईक्षितासीः, खलु । __ शय्योत्संगे इति । असो पितृगृहे निशि हे राजन् ! राजीमती जनकसदने निशायाम् । शय्योत्संगे निद्रां प्राप्य तल्पोपरि स्वप्नं लब्ध्वा । पुरा सहसा प्रबुद्धा प्रथममकस्मात् जागरिता । इति ब्रवाणा वदन्ती। स्वामिन् ! त्वं क्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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