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नेमिदूतम्
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भवति । कामिन्यः रति प्रसंगे स्वकीयामिच्छां हाव-भाव-प्रदर्शनेनैव प्रकटयन्ति, न तु शब्दतः कथयन्ति लज्जाधिक्यात् ॥ ३० ॥
शब्दार्थः - तस्मिन्- उस केलि गिरि पर, उद्यन्-प्रकट हुए, मनसिजरसा:-कामानुराग ( के कारण ), प्रांशुशाखावनामव्याजाद्-फूलों की ऊँची शाखाओं को नीचे झुकाने के बहाने से, आविःकृतकुचवलीनाभिकाञ्चीकलापा:-स्तन, त्रिवली (पेट के ऊपरी भाग में, अर्थात् वक्षस्थल और नाभि के मध्य चमड़ी पर पड़ी शिकन रेखा, जो विशेषकर स्त्रियों के सौन्दर्य का एक चिह्न समझी जाती है ) नाभि और कटिबन्ध-कलापों से, मृगदशः-- मृग के समान नेत्रों वाली, ता-पुष्पों को तोड़ने वाली वे स्त्रियाँ, विचित्रान्विविध प्रकार की, विलासान्-रतिविषयक भाव-भङ्गिमाओं द्वारा, त्वयितुममें ( नेमि में ), संधास्यन्ते-रमण की अभिलाषा करेंगी, हि-क्योंकि, स्त्रीणाम्-कामिनियों की, प्रियेषु-प्रिय के प्रति, विभ्रमः--हाव-भावविलास प्रदर्शन ही, आद्यम्-पहली, प्रणयवचनम् -प्रेम-प्रार्थना होती है ।
अर्थः - ( हे नाथ ! ) उस केलिगिरि ( के उद्यान ) में ( तुम्हें देखकर ) प्रकट हुए कामानुराग के कारण ( फूलों को तोड़ने वाली स्त्रियाँ ) फूलों की ऊँची शाखाओं को नीचे झुकाने के बहाने से, अपने स्तन, त्रिवली, नाभिप्रदेश तथा कटिबन्ध-कलापों द्वारा वे मृगनयनी स्त्रियाँ विविध प्रकार की रतिविषयक भाव-भङ्गिमाओं द्वारा तुमसे रमण की अभिलाषा करेंगी, क्योंकि कामिनियों की प्रिय के प्रति, हाव-भाव-विलास प्रदर्शन ही पहली प्रेम-प्रार्थना होती है। त्वां याचेऽहं न पथि भवता क्वापि कार्यो विलम्बो,
गन्तव्यातः सपदि नगरी स्वायतः सा त्वदम्बा। मुक्ताहारा सजलनयना त्वद्वियोगातिदोना,
काश्यं येन त्यजति विधिना सः त्वयैवोपपाद्यः॥३१॥ अन्वयः - ( हे नाथ ! ) अहम्, त्वाम्, याचे, ( यत् ) स्वा नगरी, सपदि, गन्तव्या, भवता, पथि, क्वापि, विलम्बः , न, कार्यः, ( यत: ) त्वद्वियोगार्तिदीना, सजलनयना, सा त्वदम्बा, मुक्ताहारा, अतः, येन. विधिना, कार्यम्, त्यजति, सः, त्वया, एव, उपपाद्यः ।
त्वामिति । अहं त्वां याचे अहं ( राजीमती ) भवन्तं नेमिम् इत्यर्थः प्रार्थये । स्वा नगरी सपदि यत् स्वकीया द्वारिका द्वारवती वा आशु, गन्तव्या यातव्या।
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