Book Title: Nay Rahasya Author(s): Yashovijay Gani Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh View full book textPage 9
________________ गाँव में जन्म हुआ था । करिब १० से १२ साल की आयु में उनकी जन दीक्षा हुयी । अपने गुरुदेव श्रीमद् नयविजय और जीतविजय गणि महाराज की छत्रछाया में ऊन्होंने जैन शास्त्रों का छोटी वय में भी गहन अध्ययन किया । उसकी प्रखर बुद्धि प्रतिभा को देखकर बडे बडे विद्वान् आश्चर्यमग्न हो जाते थे । वाराणसी में उन्होंने तत्काल में विद्यमान और प्रचलित मुख्य मुख्य प्रायः सभी जैनेतर दशनों और धर्मशास्त्रों का गहरा अभ्यास किया था । दाक्षिणात्य एक महान् वादी को स्याद्वाद शैली से पराजित करने पर काशी के समस्त विद्वानों की ओर से उन्हें 'न्यायविशारद' उपाधि दी गयी थी, बाद में वे रहस्यांकित न्यायगर्भित १०८ प्रथ निर्माण करके न्यायाचार्य भी बने । दीर्घ जीवन काल में जन-जैनेतर अनेक विषयों पर इन्होंने छोटे बडे अगणित ग्रन्थों का निर्माण करके हमारे ऊपर, सारे विद्वत्समाज के ऊपर बडा ही उपकार किया है । जैनशासन में नव्यन्याय के विषय में इनकी बराबरी करने वाले किसी भी विद्वान् आचार्य का नाम सुना नहीं गया । वि. स. १७१८ में उन्हें जैनशासन के मूल्यवान् उपाध्याय पद से अलंकृत किया गया । वि. स. १७४४ में बडौदा से २० मील की दूरी पर दर्भावती तीर्थ (डभोइ) में प्रायः मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन उन का स्वर्गवास हुआ और उस स्थान पर वहाँ के श्री संघने एक स्तूप बना कर उन के चरणों की दूसरे वर्ष में ही प्रतिष्ठा की थी जो आज भी विद्यमान है। उनके स्तूप का स्थान बडा चमत्कारी है ऐसा कई लोगों का अनुभव है । मैंने भी इस स्तूप के चमत्कार का आंशिक अनुभव किया है। निःशंसय ऐसे ही महान् जिनशासन के प्रभावक प्रखर प्रतिभाशाली श्रद्धेय मुनिपुंगवों से जैनशासन की शोभा सदा उज्जवल है। पंडितजी श्री दुर्गानाथजी झा गुजरात के विप्रवर्ग में प्रतिष्ठित नव्यन्याय के विद्वान हैं। मैंने भी प्राचीन और नव्य न्याय का अभ्यास इनके पास किया है जिस को बिसर जाना कृतज्ञता को खो देने जैसा है। नयरहस्य का विवेचन बडी सावधानी के साथ उन्होंने किया है । हमने भी मूलकार के आशय की क्षति न हो इस उद्देश्य से इस का संशोधन कार्य किया है । क्षयोपशम भाव का ज्ञान होने से इस में त्रुटियां होने का इनकार कोई भी नहीं कर सकता । इस लिये पाठक विद्वान् वर्ग को यह प्रार्थना है कि जहाँ भी कोई असंगति जैसा लगे तो वहाँ मूल ग्रन्थकार के आशय के अनुकुल ही तात्पर्य का अवधारण करें। 'गच्छतः स्खलना क्वापि' इस श्लोक का अनुसधान कर के अन्त में यही प्रार्थना है कि इस कार्य में जिनशासन के विपरीत कुछ भी लिखा गया हो तो उस का सम्यक् सशोधन स्वयं कर लिया जाय । उपकारीयों के उपकार का विस्मरण विपत्तिजनक है और स्मरण सम्पत्ति कारक है तो यहाँ भी उपकारी वर्ग का पवित्र स्मरण क्यों न किया जाय ? महामहीम कर्मसाहित्य निष्णात सिद्धान्त महोदधि स्व. आचार्य देव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज, उन के पट्टालंकार और हमारे जैसे अबुझ जीवों के तारणहार दर्शनशास्त्रनिपुण उग्र तपस्वी दृढसंयमी एवं सफल उपदेशक प्रगुरुदेव प. पू. आचार्य देव श्रीमद् विजय भुवन भानुसूरीश्वरजी महाराज, तथा उनके अग्रणी शिष्य स्व. शांतमूर्ति मुनिराज श्री धर्म घोष विजय महाराज के शिष्यरत्न आगम-शास्त्र-रहस्यवेत्ता गीतार्थाग्रणी उदारचरित प. पू. पंन्यास गुरुदेव श्री जयघोष विजय गणिवर आदि वडिल सयमीगण की महती कृपा इस कार्य को साद्यन्त सम्पूर्ण करने में निरन्तर प्रवाहित रही है, अन्यथा मेरे जैसा अल्पज्ञ क्या कर सकता है ?! जिन महानुभावोंने ऐसे महान् ग्रन्थरत्न क प्रकाशनादि में प्रत्यक्ष या परोक्ष तन-मन या धन से सहायता प्रदान की है वे सब धन्यवाद के पात्र हैं । अधिकृत मुमुक्षु अभ्यासी वर्ग इस ग्रन्थ का साद्यन्त अवगाहन करके आत्म श्रेय प्राप्त करे यही शासन देव से प्रार्थना है। --जयसुदर विजय नवसारी-आसो सुद ११-२०३९Page Navigation
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