Book Title: Nay Nirupan Author(s): Shivcharanlal Jain Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar View full book textPage 8
________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाङ्मय में नय-निरूपण (निश्चय : व्यवहार) - शिवचरन लाल जैन, मैनपुरी 1. मंगलाचरण हे कर्मभूमेः । प्रथमोपदेष्टिन् श्री नाभिराज्ञश्च सुधन्यपुत्र । षट्कर्मणामाध प्रवर्तकोऽसि मिथ्यान्धकार दूरं कुरुष्व ॥ एकान्तवादीन् नैयायिकादीन् स्याद्वादसिद्धान्तबलेन जित्वा । यो धर्मरक्षामकरोत् स सन्मते मिथ्यान्धकार दूरं कुरुष्व ॥ सुविद्यासुधया येन भक्ताभक्तजनाश्रितः । मूढत्रयतापसन्दोहः दुर्निवारः निराकृतः ॥ स्वनामधन्यं ज्ञानाब्धिं रत्नत्रयगुणाकरं । काव्यस्त्रष्टां विनिौमि सूरि ज्ञानसागरम् ॥ युग्म ॥ अर्थ - 1. जिन्होंने सुविद्या अर्थात् सम्यग्ज्ञान रूपी सुधा अर्थात् अमृत के भक्त और अभक्त (प्रशंसक एवं निन्दक) दोनों प्रकार के मनुष्यों में व्याप्त देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता और लोकमूढ़ता रूपी दुनिर्वार अज्ञान एवं दु:ख-समूह को नष्ट कर दिया है। 2. (पू. आ. विद्यासागरजी एवं सुधासागरजी महाराज के पक्ष में) जिन्होंने समीचीन सच्चे निर्ग्रन्थ श्रमण विद्यासागर से उत्पन्न अथवा दीक्षित पू. मुनि सुधासागरजी महाराज के द्वारा अर्थात् परम्परा के अद्यावधि उपरोक्त प्रकार वर्णित अज्ञान समूह को नष्ट कर दिया है ऐसे स्वनामधन्य ज्ञान के समुद्र, रत्नत्रय गुण के भण्डार काव्यस्रष्टा पू. आचार्य ज्ञानसागरजी को सविनय नमस्कार करता हूँ। 2. पू. आचार्य ज्ञानसागरजी : व्यक्तित्व और कृतित्व चारित्र चक्रवर्ती प. पू. आचार्य शान्तिसागर-परम्पराकाश में एक ऐसे प्रखर ज्ञान-नक्षत्र का उदय हुआ जिसने अपनी दिव्य-प्रभा से लोकवर्ती अज्ञान अन्धकार को नष्ट कर अद्यावधि महिमा सुस्थापित रूप में अक्षुण्णतया विद्यमान रखी है । वह दिव्यात्मा परम-पूज्य स्व. आचार्य ज्ञानसागरजी के रूप में विख्यात है । प. पू. आचार्य विद्यासागरजी एवं उनका विशाल संघPage Navigation
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