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तो नमस्कार किये बिना रह ही नहीं सकता है । नमस्कार मनोगत पूज्य भाव को प्रकट करने की क्रिया है, आन्तरिकभाव को प्रदर्शित करने का साधन है। व्यवहार में आने वाला है अतः व्यवहारिक स्वरुप नमस्कार को अवश्य दिया जाता है, परन्तु आभ्यंतर कक्षा में रहे हुए पूज्य भाव का फल ही नमस्कार भाव है। "
जिस प्रकार अनुमान के लिये भूयो दर्शन का प्रत्यक्ष तथा लिंगलिंगी ज्ञान होना आवश्यक है - इसके बिना अनुमान की क्रिया पंगु है - ऐसा न्याय शास्त्र कहता है, इसी प्रकार किसी व्यक्ति विशेष में पूज्य भाव-अहो भाव अथवा आदरभाव है या नहीं - यह अनुमान करने के लिये भी प्रथमदर्शी व्यवहार स्वरुप नमस्कार का प्रत्यक्ष दर्शन उपयोगी है । अतः यह नमस्कार की क्रिया भूयोदर्शन की तरह लिंग-लिंगी ज्ञान का काम निकालेगी और उसके आधार पर पूज्य भाव का अनुमान हो सकेगा । यह नित्य नमस्कार करता है, अतः इसमें पूज्य भाव हो सकता है - ऐसा कहा जाता हैं, जब कि इसमें पूज्यभाव हो सकता है - इस वाक्य का प्रयोग अधिक उचित लगता है।
'नमो' यह मानसपूजा है -
नमस्कार ..
द्रव्य . भाव
बाह्य अभ्यंतर
कायिक
मानसिक
इस प्रकार भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से हम नमस्कार के भेद कर सकते हैं। द्रव्य नमस्कार बाह्य नमस्कार है, जब कि भावनमस्कार के अर्थ में अभ्यंतर नमस्कार है । कायिक नमस्कार क्रियात्मक है, जब कि मानसिक नमस्कार भाव नमस्कार है। मन में पूज्य भाव हो और मानस नमस्कार होता हो, तो उसे ज्ञानीजन मानस पूजा कहते हैं । कायिक नमस्कार हजार बार होने पर भी यदि भाव नमस्कार मानसपटल पर न आता हो तो वह निरर्थक है, क्यों कि नमस्कार में भावुकता का होना अत्यावश्यक है । द्रव्य तो भाव के लिये कारक है - सहायक है और कारण बनता है । भाव लाने के लिये तो द्रव्य निमित्त कारण है । भूख तो पेट में लगती है, तब खाने को मन लालायित होता है और उसके बाद खाद्य पदार्थ खाने की कायिक क्रिया होती है । इसी तरह पूज्य भाव मन में प्रकट हो जाने के पश्चात्