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होगा तो वंदन अवश्य होगा, परन्तु मात्र वंदन की क्रिया हो और विनय गुण न हो तो क्रिया - क्रिया की दृष्टि से होगी, परन्तु आत्मा को कर्म निर्जरा का लाभ नहीं मिलेगा । अतः धर्म क्षेत्र में सर्व प्रथम विनय गुण की आवश्यकता गिनी है। कहा है कि धर्म के क्षेत्र में सर्व प्रथम वंदन नमस्कारादि ही मूलभूत हैं - प्रथम आवश्यकता इन्हीं की है। ___यद्यपि विनय गुण सर्व प्रथम गुण है और एक विनय गुण की प्राप्ति से ही प्रगति करते करते क्रमशः मोक्ष तक पहुंच सकते हैं । अतः विनय से मोक्ष तक गुणों की सीढ़ी बताई है, जिस पर एक एक सोपान गुणात्मक रीति से आगे बढ़ना संभव है - इस भाव को प्रशमरनिकार पूज्य उमास्वाति वाचक -वर्य ने इस प्रकार प्रदर्शित किया है :
विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरति विरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥७२॥
संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जराफलं दृष्टमं । तस्मात् क्रियानिवृतिः क्रिया निवृत्तेरयोगित्वम् ॥७३॥ योग निरोधात् भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः ।
तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥७४॥ विनय गुण का फल शुश्रूषा अर्थात् शास्त्रादि का श्रवण मिलता है और ऐसे सुंदर ढंग से विनयपूर्वक गुरु भगवंतों के समीप शास्त्रादि का श्रवणकरने से श्रुतज्ञान अर्थात आगमों का ज्ञान प्राप्त होता है । एसे श्रुतज्ञान की उपासना से विरति की प्राप्ति होती है । इस विरति से आश्रवमार्ग जिसके द्वारा पापों का आगमन होता है और कर्मबन्धन होता है, वह अवरुद्ध होता है और संवर भाव की प्राप्ति होती है । ऐसे संवर भाव से तप गुण प्रकट होता है और तप से निर्जरा होती है। तप घोर कर्मों की निर्जरा का प्रबल कारण है । निर्जरा द्वारा कर्मों का क्षय करके आत्मा क्रिया से निवृत्त होती है । ऐसी क्रिया निवृत्ति से बहुत आगे चढ़ता हुआ जीव योग निरोध करता है । बस योग निरोध होने से जो भवरुपी संसार है - परिभ्रमण है उस भव परम्परा की निवृत्ति होती है और अन्त में भव परम्परा की ही समाप्ति हो जाती है अर्थात मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार एक मात्र विनय गुण की प्राप्ति से उपासना से प्रगति करते करते अन्ततः जीव मोक्ष तक पहुँच जाता है । अतः कल्याण की परम्परा का यह श्रेष्ठ भाजन अथवा पात्र
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