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दिव्य अंतरिक्ष में एक साथ हजारों उदित सूर्य प्रकाशमान् ।।
देखे - इन सब की प्रभा जो प्रकाश स्वरुप है वह सब आपका ही माहात्म्य है । देव देव के इस रुप में पांडवों का रुप भी अर्जुन ने देखा । यह आश्चर्य देखकर अर्जुन ने विस्मित बुद्धि से प्रणाम करके भगवान की स्तुति की और निवेदन किया कि हे देव ! मैं आपकी देह में सभी देवताओं के दर्शन कर रहा हूँ और सभी प्राणियों को भी देख रहा हूँ । स्थावर - जंगम सभी प्राणियों के समूह, कमलासन पर आसीन चतु:मुखरुप ब्रह्मा को पृथ्वी रुपी कमल पर बिराजमान देखे, वशिष्टादि ऋषि, वासुको आदि को दिव्य स्वरुप में देखा, अनेक हाथ, मसूड़े, मुँह, नेत्र आदि युक्त अनंतरुपयुक्त भगवान को सर्वत्र देख रहा हूँ । विश्व के ईश्वर, विश्व के नेता, विश्व के शरीर रुप को अनंत स्वरुप में देख रहा हूँ । विश्व के नेहा, विश्व के शरीर रुप को अनंत स्वरुप में देख रहा हूँ । जिनका अंत नहीं, मध्य नहीं और आदि भी नहीं. उन विश्वेश्वर को मैं देखता हूँ । मुकुट , गदा-चक्रधारी प्रकाशपुंज स्वरुप चारों ओर से देदिप्यमान ईश को, प्रदीप्त वायु, अग्नि, अग्नि की ज्योति युक्त कष्टपूर्वक भी न देख सकें ऐसे ईश को भी देख रहा हूँ | आदि - मध्य और अन्त रहित अनादि - अनंत शक्तिशाली, अनंत हाथवाले, सूर्य और चन्द्र रुप दोनों नेत्रों वाले, दीप्त अग्निसे, व्याप्त मुखवाले अपने प्रबल प्रकाश से तप्त समस्त विश्व को देखता हूँ। स्वर्ग, पृथ्वी आकाशादि सब तारे एक के द्वारा ही व्याप्त किये गए हैं और सभी दिशाएँ भी एक के द्वारा ही व्याप्त हैं, अर्थात् तू ही सर्वत्र व्याप्त है । ऐसे सर्व व्यापी अत्यन्त उग्ररुप से लोक व्यापी स्वरुप को देखकर सभी व्यथित हुए लगते हैं ।
रुद्र, सूर्य, वसव, आदि देवतागण भी तेरी कृपा को प्राप्त किए हुए देवता भी तुझें देखते हुए होते हैं, विश्व में देवता अश्विनी, वायुदेव, उष्म पा पितर, हाहाहुहु आदि गंधर्व, कुबेरादियक्ष, सुर और असुर, कपिलादि सिद्ध-समुह सभी आश्चर्यचकित होकर तुझे ही देख रहे हैं।
समस्त आकाशव्यापी अग्नि से मानो जाज्वल्यमान दीप्त प्रसारित मुख और उसमें भी लाल लाल फटी हुई आँखोंवाले तेरे स्वरुप को देखकर अन्तरात्मा व्यथित हो गई है । वे धैर्य सुख-शांती और स्वस्थता को पाने में असमर्थ रहे हैं। हे विष्णु सर्व व्यापी भगवान् ! आपका इतना भयंकर रुप देखकर भयभीत बने हुए प्राणि अन्यत्र कहीं भी न जा सके - कहाँ जाएँ ? तू ही समग्र आकाश में व्याप्त हो तो फिर आकाश से अर्थात् तुझ से बाहर कैसे जाएँ ? वे कहीं गए ही नहीं - अर्थात्
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