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भव्यात्मा:
यह एक ऐसा जीवदल है जिस में सिद्ध बनने की योग्यता पूर्व से ही पड़ी हुई होती है । जिस प्रकार एक बीज में वृक्ष बनने की योग्यता होती हैं, वैसे ही भव्यात्मा में सिद्ध बनने की सत्ता निहित होती हैं, इसीलिये भव्यात्माओं को सिद्धों की उनके अस्तित्व के प्रति श्रद्धा जाग्रत हो जाती है । सिद्धों का अस्तित्व, मोक्ष का स्वरुप - सत्ता आदि स्वीकार करने से भव्यात्माएँ इनकार नहीं करती । उनमें श्रद्धा भी जागृत हो जाती हैं । भव्यात्माओं की यह पहचान हैं । तुरन्त पकने सीझने वाले मँग जैसी भव्यात्माएँ होती हैं ।
अभव्यात्मा :
सहज स्वभाव से ही सिद्धों की - मोक्ष की सत्ता को स्वीकार न करने वाली आत्माएँ अभव्यात्माएँ होती है । ये मोक्ष के अस्तित्व को ही नहीं मानती । सिद्ध भी भला होते होंगे - इनका प्रश्न होता है ? करडू मूंग की भाँति अभव्यात्माओं में कभी भी - अनंत काल में भी सिद्धात्माओंकी सत्ता मोक्ष अथवा मुक्तात्माओं का अस्तित्व स्वीकार करने की वृत्ति जागृत होती ही नहीं है। जिस प्रकार करडू मूंग कभी भी कितनी भी भारी आँच पर नही पकते, ज्यों के त्यों कठोर बने रहते हैं, उसी प्रकार अभव्य अनन्तकाल तक भी अभव्य, ही रहते हैं । उन में सम्यक्त्व या श्रद्धा का उद्भव होता ही नहीं है । लाखों प्रयत्न करने परभी किसी भी प्रकार से सम्यक्तव जागृत नहीं हो पाता है । जिस प्रकार एक दग्धबीज, अथवा अयोग्य बीज किसी भी परिस्थिति में अंकुरित नहीं होता, चाहे जितनी हवा-पानी-प्रकाशभूमि आदि की सुविधा सामग्री प्राप्त होने परभी वह नहीं उठता, उसी प्रकार अभव्य जीवों को भी देव-गुरु-धर्म आदि की चाहे जितनी सामग्री प्राप्त होने परभी उन अभव्य जीवों में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आता । उनकी परिणति में कुछ भी अन्तर नहिं आता । वे श्रद्धालु भी नहीं बन सकते । जिस प्रकार करडूं मूंग को पकाने के लिये चाहे जितना गेस-जल आदि का उपयोग करने पर भी परिणाम कुछ भी नहीं निकलता, उसी प्रकार अभव्य जीव में श्रद्धा जगाने अथवा सिद्धों का - मोक्ष का स्वरुप समजाने में हजारों प्रयत्न करने पर भी वे सब निष्फल सिद्ध होते हैं, जब कि भव्यात्मा को देव-गुरु-धर्म की अनुकूल सामग्री प्राप्त होने पर वह स्वयं उस दिशा में आगे प्रगति करती है और संभव है कि सम्यग् दर्शन-श्रद्धाादि सब कुछ प्राप्त करके एक दिन वहाँ तक पहुँच भी जाए
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