Book Title: Namaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Research Foundation

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Page 417
________________ यह बहुत ही बुरा कार्य किया था | रावण जैसे महासमर्थ व्यक्ति को ऐसा घृणित अपकृत्य कभी भी नहीं करना चाहिये था । रावण का यह कार्य निश्चित् रुप से बहुत ही बुरा था, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि सम्पूर्ण रावण अथवा रावण का समग्र जीवन ही बुराईयों का गर्त था । नहीं इसके बजाय रावण के जीवन में दृष्टिपात करेंगे तो उसके जीवन का उज्ज्वल पक्ष भी हमें दिखाइ देगा । कदाचित् वह उज्ज्वल पक्ष इतना अधिक उज्ज्वल होगा कि उसके सामने हम भी फीके पड़े जाएँगे। रावण के जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना जो जैन शास्त्रों में शोभा बढ़ा रही है, उसमें वर्णन किया हुआ हैं कि रावण परम जिन भक्त था । नित्य - प्रतिदिन बड़े ही उत्साहपूर्वक प्रभु भक्ति करता था । एक बार वह अष्टापद महातीर्थ की यात्रा करने स्व - पत्नी मंदोदरी के साथ जाता है और अष्टापद पर आसीन वर्तमान चौबीसी के चौबीसों ही जिनेश्वर भगवंतो की प्रतिमाओं के समक्ष रावण स्व-पत्नी के साथ नृत्य गान की भक्ति में निमग्न हुआ । महारानी मंदोदरी नृत्य करने लगी, रावण वीणा बजाने लगा, वीणा बजाना तो एक माध्यम था - साधन रुप था, परन्तु रावण के हृदय के तार झंकृत हो उठे थे । एकाकारता और तन्मयता - तादात्मयता का सुंदर नमूना था । इतने में रावण की वीणा का तार टूट गया । रावण चौंका । प्रभु-भक्ति की अखंड धारा में, मंदोदरी के नृत्य में कहीं भी स्खलना न हो, इस लिये रावण ने क्षणभर में ही अपनी नस निकालकर वीणा में जोड़ दी और भक्ति को अक्षुण्ण रखा । भावोल्लास बहुत ही उच्च कोटि का था । शुभ अध्यवसायों की तल्लीनता में, अरिहंत पदकी भक्ति में रावण ने उसी क्षण तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित किया और यहाँ से महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर बनकर मोक्षगमन करेंगे । __इस पर एक बात तो निश्चित् रुप से महसूस होती है कि रावण को बुरा - बुरा करते और देखते देखते तो हमारी दृष्टि ही बुरी हो जाएगी । इसी का परिणाम है कि रावण का पुतला बनाकर दशहरे के दिन जलाया जाता है । रावण तो गया.. रावण तो भक्ति करके तीर्थंकार बनकर मोक्ष में भी चले जाएँगे, परन्तु हमारी दृष्टि जो बुरी बन चुकी है वह कब मिटेगी ? कब उसमें परिवर्तन आएगा? इसका पता नहीं । इसलिये भगवान श्री महावीर ने सत्य ही कहा है कि काने को काना मत कहो, अँधे को अँधा भी मत कहो, पापी को पापी भी मत कहना और चोर को 395

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