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परिषहों-उपसर्गों को समाधिपूर्वक सहन करते हैं । सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप से भी संपूर्ण । अहिंसा, क्षमा, समता आदि सर्वगुणोपासना करते हुए साधना के क्षेत्र में प्रगति करते हैं ।
तीर्थंकरो को गृहस्थाश्रम में बैठे बैठे कदापि केवलज्ञान नहीं होता है, न उनका गृहस्थाश्रम से ही मोक्षगमन हो सकता है । अर्थात् “न भूतो न भविष्यति" ऐसा कभी हुआ नहीं है और ऐसा कभी होनेवाला भी नहीं है कि तीर्थंकरो को गृहस्थाश्रम में ही केवलज्ञान प्राप्त हो गया हो।ऐसा अच्छेरा भी नहीं होता है । तद्भवमोक्षगामी होते हुए भी और जानते हुए भी भगवान को सर्वस्व का त्याग करके सयंम स्वीकारना ही पड़ता है और विहार आदि में आते हुए परिषहों उपसर्गों को सहन करने ही पडते हैं इतनी साधना के बाद ही तीर्थंकर भगवंतो को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है ।
गुणस्थानकों का स्वरूपः
___ वर्तमान विज्ञान और शिक्षण कोषों का विकास मानता है । डार्विन के विकासवाद Dervins Evolulion Theory के आधार पर कोषीय विकास को मानता है, जब कि जैन धर्म Soul Evolution Theory आत्मविकास की प्रक्रिया को स्वीकार करता है, और मानता है कि आत्मा का विकास तब होता है जब आत्मा की शुद्धि होती है, और आत्मा का शुद्धिकरण आत्मा पर लगे हुए कर्मावरण दुर होने पर होता है। जैसे जैसे कर्मक्षय होता जाएगा वैसे वैसे आत्मगुणों का प्रादुर्भाव होता जाता है। कर्मक्षय की प्रकिया और आत्मगुणों का प्रगटीकरण करने के लिये १४ गुणस्थानकों की साधना बताई है । जिन पर आत्मा आगे प्रगति करती जाती है।
___ संसार के सभी जीवों के लिये आत्मविकास की यह एक समान प्रक्रिया है। चाहे तीर्थंकर परमात्मा की महान आत्मा हो या हमारे जैसे की सामान्य आत्मा हो सब के लिये कर्मक्षय की एक मात्र प्रक्रिया है। प्रथम मिथ्यात्व के गुणस्थानक से आत्मा सीधे ही चौथे गुणस्थानक पर पहुंचती है और सम्यक्त्व प्राप्त करती है । फिर पांचवे गुणस्थानक पर विरतिधर श्रावक बनती है-व्रत-पच्चक्खाण करती है
और वहां से आगे बढती है । छठे गुणस्थानक पर आत्मा सर्वविरतिधर साधु बनती है। दुनिया के समस्त पाप सर्वथा न करने की भिष्म प्रतिज्ञा करते हैं। सातवे गुणस्थानक पर साधु अप्रमत्त बनते हैं । आठवे अपूर्वकरण गुणस्थानक पर
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