Book Title: Namaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Research Foundation

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Page 471
________________ पूजा, गणपति की पूजा, देव-देवियों की पूजा बहुत पढवाते हैं । इतना ही नहीं परन्तु अजमेर की ख्वाजा पीर की मानो यात्रा पर जाते हो ऐसा लगता है । उर्स में जाते हैं वहाँ पीर पर हरि चद्दर चढाते हैं, गुलाब के फूल भी चढाते हैं, अगरबत्ती-धूप आदि करके घुटनों के बल बैठकर (नमाज) नमस्कार करने लग गए हैं । वैसा तो सर्वत्र अधिक मात्रा में चल पडा है । कई बार सम्पर्क होने पर उनसे पूछा भी जाता है, तब वे यही उत्तर देते हैं कि हमारे समकित में इसकी छूट है । हमें इसका निषेध नहीं किया गया है । हमने पच्चक्खाण लेते समय इसकी छूट रखी है । इसका मतलब यह हुआ कि उनको मात्र २४ जैन तीर्थंकर भगवान और उनके ही मंदिर में दर्शन-वंदन-पूजन का विरोध है । जो देवाधिदेव हैं, वीतराग भगवान हैं उनकी पूजा-भक्ति में पाप लगता है जब कि बाहर पीर और अन्य देवी-देवताओं की मान्यता, उनके दर्शन-पूजन यात्रादि में कहीं भी पाप लगता ही नहीं है । यह कैसी विचित्रता है ? घर का उच्चत्तम-सर्वोत्तम तत्त्व खोकर बाहर भटकते हुए और अपने ही घर के धर्म-धर्मीजनों के शत्रु बनकर बाहर के रागी-द्वेषी देव-देवीयों को पकडने में, अरे ! पीर-पैगंबरों को मानने-पूजने में कौन सा सम्यक्त्व आ गया ? कौन सा सम्यक्त्व इसमें शुद्ध होता है या पुष्ट होता है ? यही आश्चर्य है । ऐसे सच्चे वीतरागी-सर्व जिनेश्वर तीर्थंकर अरिहंत जैसे महान् भगवान मिले, सभी प्रकार से इनकी परीक्षा करने पर कसौटी पर ये एक ही वीतरागी भगवान सही उतरते हैं और फिर भी इनको ही न मानने में कितनी बडी मूर्खता है? हजार छनने से छानने के पश्चात् इन अरिहंत परमात्मा का शुद्ध स्वरुप निर्धारित हुआ है । कष-छेद-भेद-तापादि चारों भेदों से जिस प्रकार सुवर्ण की परीक्षा की जाती है, वैसे ही तर्क -युक्ति से वीतराग भगवान की सभी प्रकार से परीक्षा करने पर एक मात्र वे ही सभी परीक्षाओं में संपूर्णरुप से पार उतरते हैं और पूर्ण-संपूर्ण शुद्धअत्यन्त विशुद्ध परमात्मा का स्वरुप प्राप्त होता है । ऐसे ही परमात्मा को मानना चाहिये, उनकी ही आराधना करनी चाहिए । इन्हीं की ही आराधना हेतु नाम स्थापना आदि निक्षेप पूर्वक जाप मूर्तिपूजा रुप आराधना करनी चाहिये । क्षेत्र और काल निक्षेप का स्वरुप - नाम, स्थापना आदि रीत से विचार किया अब क्षेत्र और काल निक्षेप से भी विचार करना भी आवश्यक है । क्षेत्र की दृष्टि से विचार करने पर ढाई द्वीप के १५ कर्म भूमिओं के १५ क्षेत्र तीर्थंकर भगवान के बनने और विचरण करने के क्षेत्र 449

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