Book Title: Namaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Research Foundation

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Page 473
________________ (१६) श्री नमिप्रभस्वामी भगवान (२०) श्री अजितवीर्यस्वामी भगवान ढाई द्वीप के नामों के साथ किस-किस द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में कौन कौन से भगवान हैं ? यह जानने के लिए उपरोक्त तालिका दी है । जंबूद्वीप के एक महाविदेह में चार तीर्थंकर, धातकी खंड के पूर्व महाविदेह में चार, पश्चिम महाविदेह में चार और पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व महाविदेह में चार, तथा पश्चिम महाविदेह में भी चार इस तरह ५ महाविदेह क्षेत्र में २० तीर्थंकर होते हैं । उनकी स्तुति, स्तवना, वंदना, प्रार्थना, आराधनादि सतत अपने प्रदेशों में चलती रहती है। इतना ही नहीं आज यहां भरत क्षेत्र के भारत देश में भी सिमंधरस्वामी आदि विहरमान तीर्थंकरो के जिनालय आदि का निर्माण होता है और पूजा-सेवा भक्ति भी ठाठ से होती ही रहती है । जिस प्रकार क्षेत्र की दृष्टि से विचार किया उसी प्रकार काल की दृष्टि से भी विचार करना चहिए । काल तीन प्रकार का है - (१) भूतकाल (२) वर्तमान काल, और (३) भविष्यकाल । भूतकाल में भी तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान में तीर्थंकर हैं और भविष्य काल में होंगे । भूतकाल की गत एक उत्सर्पिणी में इस भरतक्षेत्र में जो चौबीस भगवान हुए थे उनके नाम आज भी प्रचलित हैं और वर्तमानमें उनकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं और पूजी जाती है । इसी प्रकार भविष्य में तीर्थंकर बनने वाले महापुरुषों का विचार पूर्व में कर चुके हैं । यह भावी चौबीसी तो आगामी उत्सर्पिणी में होने वाली है, उनके भी नाम प्रसिद्ध एवं प्रचलित है । उनके भी मन्दिर-मूर्ति आज भी उपलब्ध है। कालचक्र सतत गतिशील है । घुमते हुए चक्र की तरह काल परिवर्तनशील तत्त्व है । उत्सर्पिणी के बाद पुनः अवसर्पिणी आती है और अवसर्पिणी के बाद पुनः उत्सर्पिणी आती है इस प्रकार सतत गतिशील काल का पैया घूमता ही रहता है । एक उत्सर्पिणी में २४ तीर्थंकर होते हैं इसी प्रकार एक अवसर्पिणी में भी २४ तीर्थंकर होते हैं । इस प्रकार चौबीस चौबीस तीर्थंकर सदाकाल होते ही रहते हैं । काल अनादि-अनंत है । भूतकाल में अनंत उत्सर्पिणीया और अनंत अवसर्पिणीया बीत चुकी है । इसी लिये अनंत चौबीसियाँ भी हो चुकी है । एक उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी के ६-६ आरे होते हैं । इस प्रकार ६+६ आरे का कुल मिलाकर १२ आरों का १ कालचक्र होता है । इसमें २ चौबीसियाँ होती है । एक अवसर्पिणी अथवा उत्सर्पिणी के ६ आरों में मात्र तीसरे और चौथे 451

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