Book Title: Namaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Research Foundation

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Page 474
________________ आरे में अर्थात् दो ही आरे में कुल मिलाकर २४ भगवान होते हैं - इनसे अधिक नहीं होते हैं । अन्तिम चौबीसवे तीर्थंकर के निर्वाण के बाद ३ वर्ष ८ मास बीतने पर पाँचवा आरा शुरु हो जाता है । पाँचवे और छठे आरे में कोई तीर्थंकर होते नहीं द्रव्य से तीर्थंकर _ 'दव्व जिणा जिण जीवा' जिन्होंने तीर्थंकर नामकर्म निकाचित किया हो ऐसे निश्चित रुप से तीर्थंकर बनने वाले जीव द्रव्य जिन के स्वरुप में पहचाने जाते है, जैसे - श्रेणिक महाराजा, कृष्ण महाराज आदि के जीव द्रव्य जिन हैं । इन्होंने तीर्थंकर नामकर्म निकाचित किया है अतः निश्चित रूप से आगामी चौबीसी में अवश्य तीर्थंकर बनने ही वाले हैं। भावजिन स्वरुप : ___'भावजिणा समवसरणत्था' जिनका तीर्थंकर नामकर्म उदय में आ गया हो रसोदय-विपाकोदय हुआ हो और चारों ही घाति-कर्मों का सर्वथा नाश हो गया हो, जो वितरागी, सर्वज्ञ बन चुके हो, अठारह दोष रहित तीर्थंकर बनकर समवसरण में बिराजमान होकर देशना देते हो, ऐसे अरिहंत, तीर्थंकर भगवान 'भावजिन' कहलाते हैं । ये सर्वज्ञ स्वरूप में विचरण करते हैं । ऐसे तीर्थंकर भगवंत ही धर्मतीर्थ की तथा चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं । (समवसरण, अष्ट प्रातिहार्य तथा अतिशयों आदि के स्वरुप का वर्णन पूर्व में कर चुके हैं) १२ गुणों से युक्त-शोभित तीर्थंकर भगवंतो को भावजिन कहते हैं । उनकी उपासना होती है, समवसरण में बैठकर उनकी देशनाश्रवण की जाती हैं तथा उनका इस स्वरुप में ध्यान किया जाता है। पिंडस्थ, पदस्थ, रुपस्थ, रुपातीत अवस्था का ध्यान धरने पर तीर्थंकर परमात्मा की तत्संबंधित अवस्था दृष्टिगोचर होती है । जाप-ध्यान-एकाग्रता-लय आदि प्रक्रिया से तीर्थंकरो की उपासना होती है । एक मात्र उपास्य तत्त्व के रुप में ये तीर्थंकर भगवंत ही ईश्वर के रुप में वाच्य है ईश्वर ही नहीं बल्कि परमेश्वर के रुप में वाच्य है । जैन धर्म-दर्शन में ऐसे वीतरागीसर्वज्ञ-अरिहंत-जिन-जिनेश्वर-तीर्थंकर को ही ईश्वर माना गया है । ये परमेश्वर तीर्थंकर जगत के कर्ता नहीं - सृष्टि के रचयिता नहीं बल्कि मात्र उपदेशक-दृष्टा स्वरुप में हैं । मोक्षमार्ग के दृष्टा हैं । इस स्वरुप में ही ये उपास्य हैं । 452

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