Book Title: Namaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Research Foundation

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Page 437
________________ सर्व मान्य है । अर्थ, भावार्थ, रहस्यार्थ आदि सभी प्रकार से यही ग्राह्य रहा है। इस पद में अनेक गंभीर अर्थ भरे पड़े हैं अतः जैन धर्म में भगवान के बजाय यही शब्द विशेषण ज्यादा प्रचलित है । यहाँ अरिहंत नाम को ही अधिक प्रधानता दी गई है । आत्मा के रिपु जो राग-द्वेषादि कर्म शत्रुओं का हनन नाश करनेवाले अरिहंत बने हैं, उनकी इस अर्थ के अनुसार व्याख्या करने पर सिद्ध में अति व्याप्ति हो जाती है अतः क्या करे ? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहना है कि कुछ अंश में होती है और नहीं भी होती है । - · कर्म रूपी अरिओं का हनन नाश करने की प्रक्रिया दो क्रम से होती है । प्रथम स्तर पर ४ घाति कर्मों का नाश होता हैं । तत्पश्चात अन्य ४ अघाति कर्म तो वर्षों तक पड़े रहते हैं, न वे जलते हैं, न हटते हैं अतः अरिहंत शब्द से क्या समझा जाए ? दोनों ओर सरोते के बीच सुपारी जैसी स्थिति होगी । एक और अरिहंत अर्थात् अरिओं का सर्वथा संपूर्णतः नाश करनेवाले तो मात्र सिद्ध भगवंत ही विख्यात है वे ही वाच्य बनते हैं और दूसरी ओर अरिहंत शब्द से कर्म रिपुओं का सर्वथा नाश हनन करेवालों को अरिहंत कहते हैं तो अरिहंत तो अभी तक सर्व कर्म रहित बने ही नहीं है । उनके तो आधे कर्मों का क्षय हुआ है और अभी आधे कर्म शेष है तब भी अर्थ तो ठीक नहीं बैठता । इस प्रकार दोनों ओर से अर्थ न बैठे तो अव्याप्ति और अति व्याप्ति दोष युक्त दोनों पदों को कैसे रखा जा सकता है ? - कुल कर्म आठ होते हैं, वे सभी आत्मा के अरि-रिपु-शत्रु कहलाते हैं। इन सभी अरिओं का सर्वथा क्षय करनेवाले सिद्ध भगवंत हैं । इस प्रकार 'अरिहंताणं' पद से सिद्ध परमात्मा वाच्य हो जाएंगे। अति व्याप्ति जन्य यह अर्थ है । यहाँ कहते हैं कि अरिहंत भगवंत ४ घाति कर्मों का क्षय करके अरिहंत परमात्मा बने हैं फिर भी अन्य ४ अघाति कर्म उदय- सत्ता में है, परन्तु विचार करें तो स्पष्ट ख्याल आएगा कि चार घाति कर्मों के क्षय होते ही तीर्थंकर नामकर्म का विपाकोदय रसोदय हो जाता है और तीर्थंकर परमात्मा बनते हैं । तीथ की स्थापना करते हैं 1 धर्मतीर्थ प्रवर्तित करते हैं, इन्हें ही अरिहंत कहते हैं। भले ही अन्य ४ अघाति कर्मों का क्षय न भी हुआ हो, पडे रहे हो फिर भी अरिहंताणं पद से वाच्य अरिहंत कहलाते हैं क्योंकि ४ अघाति कर्म भवोपग्राही कर्म हैं। आयुष्य कर्म के आधार पर, उसके कारण नाम, गोत्र, वेदनीय कर्म टिके हुए हैं। जिस दिन आयुष्य की समाप्ति हो जाएगी उसी दिन नाम गोत्रादि कर्म भी नष्ट हो ही जानेवाले हैं, एक भी शेष 415

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