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आहार निहार विधिस्त्वद्दश्य-श्चत्वारएतेऽतिशया सहोत्याः ॥ ___अभिधान चिंतामणि में पू. हेमचन्द्राचार्य महाराज ४ अतिशयों का उपरोक्त श्लोक में वर्णन करते हुए फरमाते हैं कि - (१) प्रस्वेद रहित देह, (२) सुगंधित श्वासोच्छवास, (३) रक्त-मांस दूधवत् श्वेत, (४) अद्दश्य आहार-निहार. ये चार अतिशय प्रभु के जन्म से ही प्रभु के साथ ही स्वाभाविक रूप से रहते हैं । परमात्मा का देह स्वरूप जन्म से ही अद्भुत सौंदर्ययुक्त होता है, रोगरहित निरोगी और सर्वथा प्रस्वेद रहित अथवा किसी भी प्रकार के दोष से रहित होता है ।।१।।
· अरिहंत परमात्मा का श्वासोच्छ्वास भी कमल की सुगंध जैसा सुरभित होता है, उसमें दुर्गन्ध का सर्वथा अभाव ही होता है ।।२।।
- भगवान के शरीर में जो रूधिर - माँस आदि होते हैं वे बिल्कुल श्वेत होते हैं, मानो दूध हो । उनका रूधिर-खून हमारी तरह लाल नहीं होता है । अतःहेमचन्द्राचार्य महाराज वीतराग स्तोत्र में फरमाते हैं कि “क्षीरधारा सहोदरं" दुध की धारा के समान होता है |॥३॥
प्रभु के आहार-निहार की क्रिया सर्वसामान्य जन के लिये द्दष्टिगोचर होती ही नहीं है अर्थात् आहार ग्रहण की क्रिया हो अथवा निहार की अर्थात् मल-मुत्र विसर्जन की क्रिया हो उसे कोइ भी देख नहीं सकते हैं ।।४।। ये अतिशय प्रत्येक तीर्थंकर भगवंतो को जन्म से ही होने के कारण इन्हें सहजातिशय कहते हैं-ये सहज ही जन्म से साथ ही रहे हुए होते हैं। ये चारों ही अतिशय प्रभु के अपने कर्मक्षय के कारण होते हैं। इन में देवताओं का एक भी निमित्त न होने से इन्हें देवकृत न मानें ।
अन्य ४अतिशय :
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अतिशय
ज्ञानातिशय वचनातिशय
अपायापगमातिशय
पूजातिशय
१. ज्ञानातिशय :- अतिशय का अर्थ है अधिक प्रमाण। सर्वसामान्य जन से अधिक परिमाण - प्रमाण में होना वह है, इनमें पहला ज्ञानातिशय- ज्ञान
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