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हैं जो केवलज्ञान प्राप्त करके सर्वज्ञ वीतरागी बनते हैं, परन्तु उनके पूर्वोपार्जित तीर्थंकर नामकर्म न होने से वे तीर्थंकर नहीं बन सकते हैं।
यह तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जीत करने के लिये बीस स्थानक की आराधना अनिवार्य होती है, फिर भले ही बीसों ही बीस पदों की आराधना करे अथवा बीस में से किसी भी एक पद की आराधना करे । आराधना दोनों प्रकार से हो सकती हैं । ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि वर्तमान अवसर्पिणी के २४ तीर्थंकर भगवंतो में से प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवंत ने उनके पूर्व के तीसरे भव में अर्थात् ११ वे भव में जब वे वज्रनाम चक्रवर्ती थे, तब उन्होंने बीसों ही पदों की उत्कृष्ट रुप से आराधना करके 'तीर्थंकर नामकर्म' बाँधा था और इसके परिणाम स्वरुप अन्तिम १३ वे भव में वे ऋषभदेव भगवान बन सके थे ।
दूसरे श्री महावीर प्रभु अपने अन्तिम तीसरे अर्थात् नन्दनराजर्षी के भव में २४ लाख वर्ष संसार में बिताकर १ लाख वर्ष आयुष्य जब शेष रहा था, तब संसार का त्याग करके चारित्र लेकर साधु बने थे और अपने साधुजीवन में मासक्षमणों की बड़ी उत्कृष्ट तपस्या करते थे । उन्होंने १ लाख वर्ष के चारित्र पर्याय में ११,८०,६४५ मासक्षमण किये थे और उन में बीसों ही बीस पदों की उत्कृष्ट आराधना करके तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया था, जिसके फलस्वरुप वे २७ वे अंतिमभव में तीर्थंकर बने थे।
श्री शांतिनाथ भगवान के १२ भव हुए हैं । उन्होंने १० वे भव में जब वे मेघरथ राजा थे और कबूतर तथा बाज पक्षी के प्रसंग से वैराग्य पाकर दीक्षा ली थी, तब उन्होंने अपने साधुपद पर रहते हुए बीस में से किसी एक पद की आराधना करके जिननाम कर्म उपार्जित किया था और उसके परिणाम में १२ वे भव में वे शांतिनाथ के नाम से १६ वे तीर्थंकर बनकर मोक्ष सिधावे थे ।
भगवान श्री नेमिनाथ के धन और धनवती के प्रथम जन्म से लेकर कुल नौ भव हुए हैं । वे ७ वे भव में जब शंख कुमार के रुप में थे तब उन्होंने दीक्षा लेकर अपने साधु जीवन में बीस में से किसी एक स्थानक-पद की उत्तम आराधना करके तीर्थंकर नाम कर्म बाँधकर वहाँ से ८ वे भव में अपराजित विमान में वे देव बने थे और नौवे भव में श्री नेमिनाथ नामक २२वे तीर्थंकर भगवान बनकर मोक्ष पधारे थे ।
२३ वे भगवान श्री पार्श्वनाथ के १० भव हुए हैं । प्रथम मरुभूति के भव में सम्यक्त्व प्राप्त कर वे आगे बढ़े और ८ वे भव में जब वे सुवर्णबाहु राजा के
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