________________
प्राप्ति ही चरम लक्ष्य है, जब कि इसके लिये प्रथम लक्ष्य सम्यक्त्व प्राप्ति का है। यदि कोई सम्यक्त्व ही प्राप्त न करे, तो उसके लिए मोक्ष प्राप्ति का तो प्रश्न ही नहीं उठता है । सम्यक्त्व प्राप्ति से ही जीव का विकासक्रम प्रारम्भ होता है । आध्यात्मिक विकास के एक के पश्चात् एक शिखर पर विजय प्राप्त करनी होती है । संक्षिप्त में विकास - सोपान इस प्रकार दर्शाया जा सकता है :मोक्ष सर्वज्ञ वितरागी सिद्धात्मा अकषायी १,१३ गुणस्थान अप्रमत्त साधु ५,८,९,१० गुण स्थान प्रमत्त साधु ४ सर्व विरति विरति धर श्रावक ३ सर्व विरती श्रद्धालुश्रावक २ देशविरति १ सम्यक्त्व
इस प्रकार जीव की विकासयात्रा का यह क्रम है । इस लक्ष्य से इसे आगे बढना है । सम्यक्त्व पाने के साथ ही मोक्ष तो निश्चित् हो ही जाता है । इसमें तो दो मत है ही नहीं, परन्तु यह मोक्ष भी न्यूनतम भंवों में कैसे प्राप्त किया जाय ? यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है अब यदि प्रमाद में रहे, तब तो भवों की संख्या बढ़कर बहुत बड़ी हो जाएगी । संख्यात - अर्थात् गिनती के भवों में ही मोक्ष प्राप्ति हो सकती हो तो असंख्यात की लम्बी संख्या क्यों बढ़ानी चाहिए ? इतनी बड़ी मूर्खता तो कदापि नहीं की जाए ? अतः सम्यक्त्व प्राप्त करने पर हमारा उत्तरदायित्व बहुत अधिक बढ़ जाता है कि अधिक से अधिक अप्रमत्तभाव से हम मोक्ष की दिशा में प्रयाण करें । एक-एक कदम आगे बढ़े । इसी क्रम से उमास्वाति पूर्वधर पुरुषने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में प्रथम सूत्र दिया है कि “सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः" सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि मोक्ष का मार्ग है, अर्थात् मोक्ष प्राप्ति का मार्ग यही है। इसी मार्ग पर चलने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकेगी, अन्यथा नहीं । अतः मोक्ष मार्ग पर आगे प्रयाण करने के लिये सम्यग्दर्शन का प्रथम सोपान आगे चढ़ने के बाद अन्य शिखरों पर विजय पताका फहराने के लिये सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हेतु अथाक परिश्रम करना चाहिये और तत्पश्चात् सम्यग् चारित्र प्राप्त करने के लिये तन-मन से जुट जाना चाहिये । फिर तपादि का क्रम आएगा । इस प्रकार मोक्ष अधिक से अधिक निकट आएगा ऐसा करते करते आगे प्रगति करेंगे तो एक दिन बहुत ही
385