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की रचना ही नहीं की तो फिर क्या देखा ? तब तो इस प्रकार सर्वज्ञता लुप्त हो जाती है और यदि कर्तृत्वपन पहले मानते हैं तो सर्वज्ञता चली जाती है । तो क्या ईश्वर पहले कर्ता थे और बाद में सर्वज्ञ बने ? इसका अभिप्राय यह हुआ कि सृष्टि की रचना करते थे तब ईश्वर अल्पज्ञ थे : यह पक्ष सिद्ध हो जाएगा यदि अल्पज्ञ द्वारा निर्मित सृष्टि मानेंगे तो अनेक भूलों से भरी हुई सृष्टि दिखाई देगी तब क्या किया जाए ? और वास्तविकता भी तो यही द्दष्टिगोचर हो रही है । सम्पूर्ण सृष्टि में सैंकड़ो भूलें दिखाई पडती हैं । इस सृष्टि में कहीं भी समानता. साद्दश्यता दिखाई नहीं पड़ती । चारों ओर विषमता, विचित्रता और विविधता दिखाई देती है । कुछ भी एकरुपता में नहीं दिखता । जैसी कर्म जन्य विचित्रता, विषमता और विविधता दिखाई पड़ती है, वैसी ही - बिल्कुल वैसी ही विचित्रता विषमता और विविधता, विसंगतता आदि ईश्वर की सृष्टि में भी दिखाई देती है । हम सभी का अनुभव है कि एक राजा' तो दूसरा रंक, एक धनी तो दूसरा निर्धन, एक सुखी तो दुसरा दुःखी, एक सर्वथा बुद्ध तो दूसरा तीव्र बुद्धिवान, एक उच्च तो दूसरा नीच, - ऐसी अनेक विषमताएँ हमें दिखाई पड़ती हैं । ये सभी तो कर्म जन्य ही संभव हो सकती । ईश्वर जब सर्वज्ञ है, सब कुछ जानने वाला है तो . फिर ऐसी भूलों से भरी सृष्टि क्यों बनाई ? क्या इससे ईश्वर की अज्ञानता सिद्ध नहीं होती ? यदि होती हैं तो फिर सर्वज्ञता का पक्ष कैसे टीक सकेगा ?
दूसरी ओर आप लोग ईश्वर में सर्वज्ञता किसी भी हिसाब से मानते ही हो तो फिर ईश्वर वेद में देखकर सृष्टि रचना क्यों करता है । तो क्या ज़ो सर्वज्ञ हो उसे भी वेद में देख-देखकर वेद में जैसा लिखा है तदनुसार ही सृष्टि बनानी पड़ती है ? और यदि तदनुसार देख-देखकर ईश्वर सुष्टि रचना करता है और पूर्व कल्प में पहले वाले ईश्वर ने जैसी सृष्टि बनाई थी वैसी ही यदि वह बनाने जाए ती फिर ईश्वर की सर्वज्ञता कहां रही ? तो सर्वज्ञता कहां रही ? जो सर्वज्ञ होता है उसे वेदों में देखना-पढना नहीं पडता ? जो वेदों में पढ़ पढ़कर या देख देखकर सृष्टि बनाता है वह सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता । कारण स्पष्ट है कि जो स्वयं सर्वज्ञ न हो उसे ही वेदों को देखने की आवश्यकता रहती है । सर्वज्ञता के बिना वेदों में देखकर पढ़कर यदि सृष्टि बनानी हो तब तो हम भी बना सकते हैं! इसमें कौन सी बड़ी बात है ? हम भी अल्पज्ञ और ईश्वर भी अल्पज्ञ । अल्पज्ञता की दृष्टि से तो हम दोनों समान ही हुए न ? सादृश्य-सम्मान धर्मवाले एक ही थैली के चट्टेबट्टे गिने जाते हैं । तो समानता की दृष्टि से हम और ईश्वर दोनों एक ही पंक्ति में समान
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