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जिम्मेदार कौन? गेस चेंबर में हजारो को एक साथ लूंसकर समाप्त करनेवाले को क्या ईश्वर की संज्ञा दी जाए या अहिंसा के पुजारी को ? विधुत् तार के झटके से हजारों को जिवित जला कर यमसदन पहुँचाने वालों को किस नाम से संबोधित किया जाए? निकट भूतकाल के इतिहास में ऐसी तो कितनी ही भयंकर घटनाएँ घटी हैं । इतिहास के ये श्याम-कालिख पुते पृष्ट किस बात की सूचना देते हैं ?
इस पर एक बात तो निश्चित रुप से सिद्ध होती हैं कि इन सभी ने बाह्य व्यक्ति को शत्रु मानकर कार्यवाही की है तब से ऐसी परिस्थिति बनी है । यदि भगवान महावीर के उपदेश को मानकर - अनुसरण कर चले होते और उनके आधार पर आत्म निरीक्षण Self-Introspection करके देखा होता तो उनकी दृष्टि में आतरिक शत्रु ही नजर आते । क्रोध, अभिमान, माया, छल, कपट, लोभ, राग-द्वेष, वैर-वैमनस्य, ईर्ष्या, काम संज्ञा विषय-वासनादि सैंकड़ों पाप-शत्रु हमारे अन्दर डेरा डालकर जमे पडे हैं जो हमारी आत्मा को मलीन करते हैं ये कर्म हमारे आन्ता-शत्रु हैं हमें इनका नाश - हनन करना है, और हमारे हनन में प्रयत्नशील हैं । इनके पाँव उखाड़ने के लिये बल-प्रयोग की आवश्यकता है । बाह्य शत्रुओं को मारना तो अपेक्षाकृत बहुत सरल है, जब कि आंतरिक - अभ्यंतर शत्रुओं को मारना बड़ा ही कठिन कार्य हैं । अंदर के अनेक शत्रुओं को जीतने की बातें तो दूर रही, परन्तु एक-दो विषय-कषायों को, काम - क्रोध जैसे एक दो को भी जीतना है । तो भी हमें दिन में तारे दिखाई देने लगते हैं तो फिर सोचो कि महावीर ने इन सब पर विजय कैसे प्राप्त की होगी ?
महावीर की महावीरता :
वीर और महावीर में इतना अंतर है कि बाह्य शत्रुओं का विजेता वीरबहादुर कहलाता भी होगा, परन्तु महावीर की सच्ची महावीरता इसी में सार्थक है कि उन्होंने काम क्रोधादि सभी आत्मशत्रुओं को संपूर्ण रुप से जीत लिया था । अंश मात्र भी उन्होंने उन्हें अपने अंदर रहने नहीं दिया । यह है उनकी महावीरता। - हेमचंद्रचार्य तो वीतराग स्तोत्र में स्पष्ट ही कहते हैं :
न केवलं राग मुक्तं वीतराग मनस्तव ।
वपुस्थितें रक्तमपि क्षीरधारा सहोदरम् ॥ हे भगवान् ! मात्र आपके मन में से ही राग गया है ऐसा भी नहीं परन्तु राग सर्वथा नष्ट हो गया और सारे ही शरीर में से सभी राग के परमाणु भी नष्ट
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