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निश्चिन्तता का अनुभव करते हैं, ऐसा ही अनुभव यहाँ भक्त को भगवान के विषय में होगा । अतः ईश्वर - परीक्षा उस ईश्वर के निर्णय हेतु है, अनेक में से एक का चयन करने के लिये है । इसमें न तो हमें डरना है न इसमें किसी प्रकार की अवज्ञा है।
___ इस प्रक्रिया में व्यक्ति दूसरी तरह से भी परेशान रहता हैं । उसका कहना यह भी है कि भगवन् ! हमारी ऐसी योग्यता कहाँ है कि हम ईश्वर की परीक्षा करें? हमारी तो शक्ति - बुद्धि किसी का भी ठिकाना नहीं है । हमारे में ही पूरी योग्यता - पात्रता न हो तो फिर हम ईश्वर की परीक्षा करने के अधिकारी कौन ? क्या यह अपधिकार चेष्टा न होगी ? इसके उत्तर में कहा है कि - जैसे सोने की परीक्षा कसौटी पर करते समय हमने कितनी बुद्धि चलाई थी । हमारी बुद्धि पर कहाँ आधार था ? आधार तो कसौटी के पाषाण पर था । अतः कसौटी ने जो निर्णय दिया उसे ही हमने मान्य रखा है । इसी प्रकार आपकी बात में सत्यता है कि हम ईश्वर की परीक्षा किस प्रकार करें ? हमारे में तो अपेक्षित बुद्धि - शक्ति - सामर्थ्य - पात्रता कुछ भी नहीं है । भले ही ये न हों - पर निराश होने की आवश्यकता नहीं है । आगम शास्त्रों ने हमे सिद्धान्तों का मिश्रणवाला कसौटी का एक ही ऐसा पाषाण दे रखा है जिसके आधार पर हमें ईश्वर की परीक्षा करनी है, फिर परीक्षा करने में पीछेहठ क्यों ?
ईश्वर - सिद्धि करने हेतु शास्त्रो ने हमें तीन - चार प्रकार के दिशा - निर्देशक सूत्र दिये हैं । वे सूत्र इस श्लोक में प्रदर्शित हैं :
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म भूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्वानां, तीर्थेशं स्मृतिमानये ॥ (१) जो मोक्ष मार्ग पर ले जाने वाले हों, मोक्ष-मार्ग प्रदर्शक हों, अपना साध्य - गंतव्य ईष्ट जो मोक्ष है उसकी प्राप्ति का उपाय - मार्ग दिखाने वाला हो
(२) जिन्होंने स्वंय ही अपने कर्मरुपी पर्वतों को भेद डाला हो, कर्मों का क्षय करके जो तीर्थंकर बने हों और
(३) जो स्वयं सकल विश्व के समस्त पदार्थों - तत्त्वों के ज्ञाता हो - ऐसे तीर्थंकरों को स्मृति - पटल पर लाकर स्मरण करता हूँ - दर्शन करता हूँ।
यहाँ इस श्लोक में ईश्वर के लिये तीन - चार सिद्धान्त बताए गए हैं । हमें किसी को भी ईश्वर मानना - स्वीकार करना हो तब इतना देख लें कि उस ईश्वर
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